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________________ दशमं पर्व १९९ लीलया ललिताङ्गोऽसौ सलिलं पावनिस्तदा । तस्यास्ततार संतृप्तः शर्मणा विगतश्रमः ॥९५. उत्तीर्य तज्जलं जिमवर्जितः पावनिस्तदा । आजगाम गृहं साधं कौरवैर्दुष्टकौरवैः ॥ ९६ मन्त्रयित्वान्यदा तस्य कौरवैारणकृते । भेजे. मैत्री प्रकुर्वाणैः स्पर्धा तेन महौजसा ॥९७ एकदा भोजनार्थ स आहूतः कौरवैः कृती । आमन्त्रणेन सद्भक्या पावनिः परमोदयः ॥९८ दुर्योधनेन दुष्टेन तस्मै भोजनमध्यगम् । ददे हालाहलं तूर्ण तत्कालप्राणहारकम् ॥९९ । श्रेयसः परिपाकेनासुधायत महाविषम् । भुजानस्य तदा भोज्यं तस्य सद्रुचिकारकम् ॥१०० तस्य श्रेणिक माहात्म्यं पश्य पुण्यसमुद्भवम् । हालाहलमपि प्रान्तकारकं चामृतायत॥१०१ विषं निर्विषतां याति शाकिनीराक्षसादयः। प्रभवन्ति न भूतेशा धर्मयुक्तस्य देहिनः।। १०२ रक्तनेत्रो महानागः फणाफूत्कारभीषणः । धर्मतो धर्मयुक्तस्य सदा किञ्चुलकायते ॥ १०३ ज्वलनो ज्वालयन्विश्वं ज्वालाजालसमाकुलः । भीषणो दुःखदो धर्मात्सत्वरं सलिलायते॥ शृगालीयति सत्सिंहः स्तभति द्विरदोत्तमः । स्थलायते नदीशश्च धर्मतो धर्मिणां सदा॥१०५ महीभुजा महाराज्यं प्राज्यं प्राञ्जलिघारिभिः । महीशैर्महितं मान्यं धर्मात्संजायते नृणाम् ॥ कुचभारभराकान्ता भ्रमद्भनेत्रपङ्कजाः । लावण्यरसवारीशा वृषाद्वामा भवन्त्यहो॥१०७ वह मानो शय्याके समान गंगाके जलमें रहा । सुखतप्त, श्रमरहित, सुंदर शरीरवाला यह भीम लीलासे गंगानदीका पानी तैरकर गया । कपटरहित भीम वह गंगाजल तैर कर मानो दुष्ट कौवे ऐसे कौरवों के साथ अपने घर आगया ॥ ९२-९६ ॥ किसी समय उसको मारनेके लिये उस महातेजस्वी के साथ स्पर्धा करनेवाले कौरवोंने विचार करके मैत्री संपादन की। अन्य समयमें कौरवोंने भक्तिसे उत्तम उन्नति-वैभवके धारक भीमको आमंत्रण देकर भोजनके लिये बुलाया । दुष्ट दुर्योधनने उसको भोजनमें तत्काल प्राणहारक हालाहल विष दिया। परंतु पुण्यके उदयसे महाविष भी अमृत हो गया। महाविषको खानेवाले भीम को वह उत्तम रुचिकारक अन्न बन गया ॥ ९९-१०० ॥ हे श्रेणिक, उस भीमके पुण्यका माहात्म्य देख । मरण करनेवाला हालाहलभी अमृत हो गया । जो धर्मयुक्त प्राणी है उसके लिये विषभी निर्विष होता है । शाकिनी, राक्षस आदिक भी प्रभावयुक्त नहीं होते हैं और भूतों के स्वामी भी असमर्थ हो जाते हैं । फणा के फूत्कारसे भयंकर, लाल नेत्रवाला महानाग धर्मयुक्त प्राणिके धर्मसे हमेशा गण्ड्रपद के समान हो जाता है । ज्वालाओंके समूहसे युक्त जगत्को जलानेवाला भयंकर और दुःखद अग्नि धर्मसे शीघ्र पानी हो जाता है । धार्मिकोंके धर्मप्रभावसे ही सिंह स्यार होता है । अतिशय बडा हाथी भी स्तब्ध होता है । समुद्र स्थल बन जाता है । मान्य राजोंओंसे पूजनीय, तथा जिसे हाथ जोडकर राजा नमस्कार करते हैं ऐसा राज्य मनुष्योंको धर्मसे प्राप्त होता है। स्तनभार को धारण करनेवाली, चंचल भोहे और नेत्रकमलोंसे सुंदर, लावण्य और शृङ्गारादिरस के मानो समुद्र ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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