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________________ नवमं पर्व १७३ मांसपिण्डे कुचे स्त्रीणां सुधाकुम्भं नरा इति । रारज्यन्ते यथा काकाः पिशिते पिशिताशनाः॥ सुघने जघने स्त्रीणां सुखायन्ते च कामिनः। रक्ता विनिवहे किं न यतन्ते सूकरा मुवि ।। कीदृशं किं कियत्कुत्र जातं नारीभवं सुखम् । इत्यूहेन स्थितं. सर्व कर्दमक्षालनं यथा ॥५९ सप्तधातुमये काये खपाये बहुमायके । रारज्यन्ते कथं स्त्रीणां रामान्धा रङ्कवत्सदा ॥६० निवारितापि जन्तूनां दाफला धीः प्रवर्तते । अकृत्येऽपि न कृत्ये हि यत्नेन यतते सताम् ॥ विषयत्वं विजानाति पङ्कहेतुं सतां मतिः। तथापि तत्र वर्तेत धिङ्मोहस्य विचेष्टितम् ॥६२ मोमुह्यन्ते नरा मोहात्सीमन्तिन्याः शरीरके। असद्वस्तुनि सद्बुद्ध्या प्रतार्यन्ते हताशयाः॥ दशाननादिभूपानां स्त्रीनिमित्तं हि केवलम् । मरणं राज्यनिर्णाशश्वासीदुर्गतिरुत्तरा ॥६४ क यामः किं वयं कुर्मः कतिष्ठामः कुतः सुखम् । कुतो लभ्या मया लक्ष्मीः कः सेव्यो नृपतिः पुनः॥६५ का स्त्री स्वरूपसौभाग्या किं भोग्यं भोगभूतये। को रसो रसनास्वाद्यः किं वस्तु मम कार्यकृत् ॥ मांसमें अनुरक्त होते हैं वैसे कामी पुरुष उनमें सुधाके कुंभ समझ अतिशय अनुरक्त होते हैं। जैसे सूअर विष्ठाके समूहमें लुब्ध होते हैं, वैसे कामी पुरुष स्त्रियोंके सघन जघनमें अनुरक्त होकर उससे अपनेको अतिशय सुखी समझते हैं ॥५४-५८॥ स्त्रीसे प्राप्त होनेवाला सुख क्या है? कैसा है ? कितना है ? कहांसे उत्पन्न होता है ? इन बातोंका यदि विचार किया जायगा, तो यह कीचड धोनेके समान होगा। यह स्त्रीका देह सात धातुओंसे भरा हुआ है, और अपाययुक्त है, नाशवन्त है। मायासे भरा हुआ है। इसमें रागान्ध हुए पुरुष दीनके समान अतिशय आसक्त हो रहे हैं ॥५९-६०॥ प्रयत्नसे बुद्धिका निवारण करनेपर भी वह अकृत्यमें प्रवृत्त होती है और आत्माको अपना दुष्टफल चखाती है। बुद्धिको सत्कृत्यमें यत्नसे प्रेरणा करनेपरभी वह उसमें प्रवृत्त नहीं होती है। सज्जन प्रयत्न करके लोगोंकी बुद्धिको सत्कृत्यमें लगाते हैं तोभी वह उसमें प्रवृत्त नहीं होती है ॥ ६१ ॥ सज्जनोंकी बुद्धि विषयोंको पापका कारण समझती है तथापि लोगोंकी बुद्धि उन विषयोंहीमें प्रवृत्त होती है, मोहकी चेष्टाको धिक्कार है ॥ ६२ ॥ मनुष्य मोहसे नारीके शरीरमें अतिशय लुब्ध होते हैं। उनका ज्ञान मारा जाता है, और वे असद्वस्तुमें सद्वस्तुकी बुद्धिसे फँस जाते हैं ॥ ६३ ॥ दशान. नादिक अनेक राजा स्त्रीके निमित्तहीसे मर गये, उनका राज्य नष्ट हुआ और बाद वे दुर्गतिको प्राप्त हुए ॥ ६४ ॥ नानाविध विकल्पसमूहसे फँसाए गये मोहयुक्त दुष्ट बुद्धिवाले लोग इसप्रकार विचार करते हैं- कहां जाना चाहिये ? क्या कार्य करना चाहिये ? कहां रहना चाहिये और किससे सुखलाभ होगा ? मुझे कौनसे उपायोंसे लक्ष्मी प्राप्त होगी? कौनसे राजाकी सेवा करना चाहिये ? कोनसी स्त्री स्वरूपसुंदर और भाग्यशालिनी है ? भोगके वैभवके लिये कोनसी वस्तु भोग्य है ? जिह्वासे कोनसा रस ग्रहण करने योग्य है ? किस वस्तुसे मेरा इच्छित कार्य सिद्ध होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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