SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाण्डवपुराणम् इदं सर्व त्वया भुक्तपूर्व जन्तो बनेकशः। पूर्व तदेव स्वोच्छिष्टं को भुनक्ति सुधीर्मुवि ॥४६ विषयैर्भुज्यमानैर्हि न तृप्तिं यान्ति देहिनः। स्वकायमथमोद्भुतै रतिस्तत्र कथं नृणाम् ॥४७ भुज्यमानाः सुखायन्ते विषया दुःखदायिनः। अन्ते स्वर्णफलानीव मिष्टान्यादौ स्वहान्यथ ।। नश्यन्ति विषयाः स्थित्वा चिरं नूनं यदि स्वयम् । हीयन्ते न कथं सद्भिस्त्यक्ता मुक्तिकरा यतः॥ सुरासुरनरेन्द्राणां तृप्तिनों विषयैः क्वचित् । नरदेहसमुद्भूतैः कथं तृप्यन्ति ते नराः॥५० यः सागरसुपानीयैर्वाडवस्तृप्तिमुन्नताम् । इयति स्म न किं याति तृणाग्रबिन्दुतः स च ॥५१ पूर्व भुक्तास्त्वयानन्तकालं ते तैश्च पूर्यताम् । इदानीमात्मसौख्येन तृप्तोऽहमस्मि सस्मयः॥५२ रागोऽधिस्त्रि निजान्प्राणान्हन्ति राज्यं च रागिणः। दुर्नयाः किं न कुर्वन्ति स्वकृत्यं भोगभागिनः॥५३ वक्त्रं श्लेष्माकरं स्त्रीणां दूषिकादूषिते पुनः। नेत्रे नासापुटं पूतिगन्धद्रव्यभरावहम् ॥५४ ईदृशे वदने मूढाश्चन्द्रबुद्धिं प्रकुर्वते । तिमिराक्षनराः किं न रज्यन्ति शुक्तिकापुटे ॥५५ बालभारवहे मूढा धम्मिल्ले योषितामिति । प्रकीर्णकप्रकृत्यार्ता मोमुह्यन्ते मदावहाः ॥५६ कौनसा बुद्धिमान भोगना चाहेगा ? भोगे जानेवाले विषयोंसे प्राणियोंको तृप्ति नहीं होती है। समझमें नहीं आता है कि, अपने शरीरको स्त्रीके शरीरसे घिसनेपर उत्पन्न होनेवाले सुखमें मनुष्योंको क्यों आसक्ति उत्पन्न होती है ? वास्तविक वह सुख नहीं है ॥ ४४-४७ ॥ भोगे जानेवाले ये विषय दुःख देनेवाले हैं परन्तु मनुष्योंको सुखके समान मालूम पडते हैं। ये विषय प्रथम मिष्ट मालुम पडते हैं परन्तु धत्तूरके फलके समान अन्तमें जीवका घात करते हैं। जब कि ये विषय दीर्घकालतक रहकर भी निश्चयसे स्वयं नष्ट होते हैं तो सज्जन इनका त्याग क्यों नहीं करते हैं ? इनका त्याग तो जीवको मुक्तिप्रदान करनेवाला होता है। देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ति भी विषयोंसे तृप्त नहीं हुए हैं अतः मनुष्यदेहसे उत्पन्न हुए इन विषयोंसे मनुष्य कैसे तृप्त होंगे? ॥४८-५०॥ समुद्रमें रहनेवाला वाडवाग्नि समुद्रके पानीसेभी तृप्त नहीं होता है वह तिनकेके अग्रपर रहनेवाले जलबून्दसे तृप्त कैसे होगा ? ॥ ५१ ॥ हे आत्मन् , पूर्वमें अनन्तकालतक तूने इन विषयोंका उपभोग लिया है। अब इनसे विराम लेनाही अच्छा है। इस समय मैं आश्चर्ययुक्त होता हुआ आत्मसौख्यसे तृप्त हुआ हूं। स्त्रीविषयके प्रेमसे कामी लोग अपने प्राण और राज्य गमाते हैं । भोगोंको भोगनेवाले स्वैराचारी कामी लोग कौनसा अकृत्य नहीं करते हैं? ॥ ५२-५३ ॥ स्त्रियोंका मुख लाला-थूक वगैरहका खजाना है। पुनः नेत्रभी मलसे भरे हुए हैं और नाकके दो रन्ध्र दुर्गंध पदार्थसे भरे हुए हैं। इसप्रकारके स्त्रीमुखमें-मूढ लोग चन्द्रकी बुद्धि करते हैं जैसे पीलिया रोगसे मनुष्य सीपमें सुवर्ण समझकर प्रेम करते हैं । स्त्रियोंके केशसमूहमें अर्थात् बांधे हुए केशोंको चामर मानकर काममत्त पुरुष मोहित होते हैं। स्त्रियोंके स्तन मांसके पिण्ड हैं परन्तु उनमें-मांसभक्षक कौवे जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy