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________________ १६१ अष्टमं पर्व मुखमस्य सुखालोकं शशाङ्कपरिमण्डलम् । अधः कुर्वद्रराजेदमखण्डपरिमण्डलम् ॥ १५१ कर्णी कुण्डलशोभाढ्यौ कपोलौ दर्पणोज्ज्वलौ। नयने सूक्ष्मदर्शित्वादीप्रे तस्य बभूवतुः॥१५२ नासा वंशसमाभासीत्सद्गन्धग्रहणक्षमा। विलसद्विद्रुमाकारौ तस्योष्ठौ रेजतुस्तराम् ॥ १५३ ललिते भूलते तस्य लीलां बभ्रतुरुभताम् । कामेन वैजयन्त्यौ वा समुत्क्षिप्ते जगजये ॥१५४ कण्ठोऽस्य कण्ठिकाहारभूषणैर्भूषितो व्यभात् । स्वर्णादिशिखरं यद्वज्ज्योत्स्नया परिवष्टितम् ॥ वक्षस्स्थलं च विषुलं सहारं तस्य भात्यरम् । सनिझेरं यथा क्ष्माभृत्तटं सुघटसङ्कटं ॥१५६ भुजस्तम्भौ महास्वम्भाविव तस्य जगद्धतेः । रेजतुर्हस्तिहस्ताभौ जयलक्ष्म्याः सुलक्षितौ ॥१५७ तस्य हस्ततलं रेजे खाङ्गणं वा महोडभिः । मीनकूर्मगदाशङ्खचक्रतोरणलक्षणैः ।। १५८ कटकाङ्गदकेयूरमुद्रिकायैर्विभूषणैः। व्यद्योतिष्टास्य सत्कायः सुभूषाकल्पवृक्षवत् ॥ १५९ स नाभिकूपिकां दधे लावण्यरसवाहिनीं। रसत्सरससंपृक्तां श्रोणिं योषामिवापराम् ।। १६० सघनं जघनं तस्य दुकूलकुलसंकुलं । रेजे यथा नदीकूलं फेनिलं जलराजितम् ॥ १६१ नेवाला इस राजकुमारका मुख सुखदायक कान्तिसे युक्त था, जिससे इसने चन्द्रका मण्डल तिरस्कृत किया था। अर्थात् पूर्णचंद्रसे भी युधिष्ठिरका मुख अखण्ड कान्तियुक्त था अतः चन्द्रको तिरस्कृत करता हुआ यह शोभने लगा॥१५१॥ इसके दो कान कुण्डलशोभासे पूर्ण थे, इसके दो गाल दर्पण के समान उज्ज्वल थे। और दो आँखें सूक्ष्म पदार्थ को देखनेवाली होनेसे तेजस्विनी थीं ॥१५२॥ उसकी नासा [ नाक ] बांस के समान सीधी और मधुरगंध ग्रहण करनेमें समर्थ थी। उसके दो ओठ मनोहर प्रवालके समान अधिक सुंदर दीखते थे ॥१५३॥ उसकी मनोहर दो भौंएँ उन्नत लीलाको यानी उत्कृष्ट शोभाको धारण कर रही थी। मानो जगत् को जीतने पर कामदेवने दो जयपताकायही ऊंची की हैं ॥१५४॥ इस कुमारका कंठ कंठिका, हार आदि भूषणोंसे भूषित होकर विशेष शोभा युक्त हुआ। मानो वह चन्द्रिकासे वेष्टित मेरुपर्वत का शिखरही है ॥१५५॥ उसका विशाल और हारयुक्त वक्षःस्थल अधिक शोभायुक्त हुआ था। मानो वह झरनेसे युक्त सुरचित कटकसे युक्त पर्वततट ही है ॥१५६॥ जयलक्ष्मीसे सुशोभित उसके दो बाहुस्तंभ हाथीकी सूंडके समान थे। मानो जगत्को धारण करनेवाले वे महास्तंभही हैं ॥१५७॥ युधिष्ठिरके हाथका तलभाग आकाशांगण के समान दीखता था। क्योंकि नक्षत्र, मीन-मत्स्य (मीन राशि), कूर्म-कछुआ, गदा, शंख, चक्र, तोरण आदि लक्षणोंसे युक्त था ॥१५८॥ राजकुमारका सुंदर शरीर कटक-कडे, अंगद केयूर, अंगुठी इत्यादि अलंकारोंसे भूषणांग कल्पवृक्षके समान शोभता था ॥१५९॥ लावण्यरसको धारण करनेवाली नाभिरूपी बावडी उसने धारण की थी। तथा शोभनेवाले सुरससे श्रृंगारादिक रसोंसे युक्त ऐसी कटि-कमर दूसरी स्त्रीके समान कुमारने धारण की थी। उसका मजबुत कटिभाग सूक्ष्म शुभ्रवस्त्रसे युक्त होनेसे फेनयुक्त जलसे शोभनेवाले नदीके किनारे समान शोभने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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