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________________ चतुर्थ पर्व वक्तुं दादिदं युक्तं नादृष्ट्वा चक्रनायकम् । यत्कोपान स्थितिदेहे को कश्च स्थातुमर्हति।।६८ निशम्येति तयोर्वाक्यमवादीस भवत्पतिः । चक्री ते कुम्भकारः किं घटकृत्कारकाग्रणी।।६९ किं प्रेष्यं तस्य चत्युक्ते तो सक्रोधाववोचताम् । चक्रिभोग्यमिदं कन्यारत्नं किं तेऽद्य जीयेति।। ज्वलनादिजटी कोऽसौ कः प्रजापतिनाममा । क्रुद्धे चक्रिणि चेत्युक्त्वा गतौ दूतौ ततः क्रुधा।। प्राप्याश्वग्रीवमानम्याकुण्ठौ भूपविचेष्टितम् । प्रोचतुस्तत्खगेट श्रुत्वा स्फालयामास दुन्दुभिम्।।७२ जगद्वथापिनमाकर्ण्य भेरीनादं जगुर्नृपाः । क्रुद्धे चक्रिणि कस्तिष्ठेद्भूमौ भीतिभरावहः ॥७३ स्थावतेमगाश्चक्री चतुरङ्गबलेस्तदा । जजृम्भिरे कान्दाहा उल्कापाताश्चचाल भूः॥ ७४ विदित्वैतत्सुतौ तत्र प्रतीयतुः प्रजापतेः । सेनयोरुभयोस्तत्र सङ्गरः समभून्महान् ॥ ७५ हयग्रीवमगात्कोपात्रिपृष्ठो युद्धसनधीः । हयकण्ठोऽपि तं पूर्ववैरायोद्धं समुद्यतः ॥ ७६ समाच्छादयतः सेनां तो बाणैलिनौ बलात् । सामान्यशस्त्रयुद्धेन जेतुं तावितरेतरम् ॥ ७७ यदि वह कोपयुक्त हो जाये तो देहमेंभी रहना कठिन है । फिर पृथ्वीपर कौन कैसे रह सकता है। उन दूतोंका वाक्य सुनकर वह त्रिपृष्ठ आपका स्वामी चक्री-कुंभकार है, क्या घडे बनानेवाला कारुशूद्रोंमें अगुआ है ? उसकी क्या आज्ञा है ? इसप्रकार बोलनेपर फिर वे दूत क्रोधसे बोल | जो कन्यारत्न तुमको प्राप्त हुआ है, क्या तुम उसे पचा सकते हो। यह कन्यारत्न चक्रिभोग्य है, वह आपको नहीं पचेगा। चक्रवर्ती कुपित होनेपर कहांका ज्वलन जटी आर कहांका प्रजापति ? इसतरह बोलकर वे दोनों क्रोधसे वहां से चले गये ॥ ६०-७१ ॥ वे दो चतुर दूत लौटकर अश्वविके पास गये उसको नमस्कार कर त्रिपृष्ठकी चेष्टा का उन्होंने वर्णन किया। उसे सुनकर अश्वग्रीवने नगारे वजवाये । जगतमें फैलनेवाला दुंदुभीका आवाज सुनकर भूपाल बोलने लगे। चक्रवर्तीके क्रुद्ध होनेपर इस पृथ्वीपर डरके मारे कौन रह सकता है ? ॥ ७२-७३ ॥ [ त्रिपृष्ठका अश्वग्रीवके साथ युद्ध ] चक्रवर्तीने चतुरंगसेनाके साथ रथावर्तपर प्रयाण किया । तब दिग्दाह, उल्कापात और भूकम्प हो गये । चक्रवर्तीका रथावर्तगिरिपर आना जानकर प्रजापति राजाके दोनों पुत्र उस पर्वतपर गये। तब वहां दोनों सेनाओंका घमसान युद्ध हुआ। युद्धमें जिसकी बुद्धि लगी है ऐसे त्रिपृष्ट कुमारने कोपसे अश्वग्रीवपर आक्रमण किया, और पूर्व बरसे अश्वग्रीवभी त्रिपृष्ठसे लडनेके लिये उद्युक्त हुआ। वे दोनों बलवान् वीर अपने बलसे बाणोंसे सेनाको आच्छादित करने लगे। तथा सामान्यशस्त्रोंसे वे दोनों एक दूसरेको जीतनेके लिये आरंभ करने लगे। समर्थ तथा बलसे उद्धत वे दोनों विद्यायुद्धभी करने लगे। दीर्घकालतक युद्ध करके भी जब अश्वग्रीवका विद्याबल व्यर्थ हुआ तब क्रोधसे उसने शत्रुके ऊपर चक्र फेंक दिया। वही १ स म वाक्यमगीत्स। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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