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________________ पाण्डवपुराणम् सिन्धुदेशे हतो येन मृगारिः सत्पराक्रमः । येनाहारि हठात्वां च प्राभृतं प्रति प्रेषितम् ॥५७ खयंप्रभाभिधं रत्नं येनादायि खगेश्वरात । ततस्ते शोभनं नूनं भविता चेक्ष्यतां स हि ॥५८ सोऽवादीन्मन्त्रिणस्तूर्ण युष्माभिः स समीक्ष्यताम् । विषाङ्कुरवदुच्छेद्यः सोज्यथा दुःखकृत्खलः। सर्वमन्विष्य तत्रापि निगूढैः प्रेषितैर्जनैः । शतबिन्दूक्तमाचिन्त्य तन्मृगारिवधादिकम् ॥६० त्रिपृष्ठो नाम दर्पिष्ठः स परीक्ष्यः क्षितौ महान् । इत्युक्तं च महादूतौ चिन्तागतिमनोगती।।६१ त्रिपृष्ठं प्रेषयामासाश्वग्रीवो भयसंयुतः । तौ गत्वा नृपतिं नत्वा दृष्ट्वा प्राभृतपूर्वकम् ॥ ६२ . निवेद्यागमनं युक्त्या प्रोचतुर्विनयान्वितौ । खगेश्वरेण भूप त्वमधुना ज्ञापितोऽस्यहो ॥ ६३ एष्याम्यहं रथावर्तादि ममानु भवानिति । त्वां नेतुमागतावावामारोप्याज्ञां खमूधेनि ॥ ६४ आगन्तव्यं त्वयेत्युक्ते जगाद सोऽपि कोपतः । उष्ट्रग्रीवाः खरग्रीवा अश्वग्रीवा नराः क्वचित्।। न दृष्टा इत्ययुक्तं तावूचतुः खगनायकम् । अवमन्तुं सर्वलोकाभ्ययं युक्तं न ते द्रतम् ॥६६ इत्युक्ते सोवदत्स्वामी खगेट ते पक्षसंयुतः । एष्याम्यहं न तं द्रष्टुमित्यरूतां च तो नृपम्।। [ अश्वग्रीवने त्रिपृष्ठके पास दूत भेजे ।] जिसने सिंधु देशमें उत्तम पराक्रमी सिंह मारा, और आपके तरफ भेजी हुई भेट बीचमेंही बलात्कारसे लूट ली तथा स्वयंप्रभा राजकन्याको जिसने ज्वलनजटीसे ग्रहण किया, उससे आपको निश्चयसे पीडा होगी, अतः आप विचार करे । तब अश्वग्रीवन अपने मंत्रियोंसे कहा कि आप शीघ्र उसका अन्वेषण करें । विषांकुरके समान उसे तोडना ही चाहिये । यदि वह दुष्ट शत्रु नष्ट नहीं होगा तो वह हमको दुःग्वदायक होगा ॥ ५७-५९ ॥ शतबिन्दुने कही हुई सिंहवधादिक बातोंका विचार कर भेजे गये गुप्तचरों द्वारा उन बातोंका वहां अन्वेषण किया गया । त्रिपृष्ठ अत्यन्त दर्पयुक्त है, उसकी परीक्षा करनी चाहये ऐसा कहकर भयभीत अश्वग्रीवने चिन्तागति और मनोगति नामके दो दूत भेटके पदार्थोसहित भेज दिये । उन्होंने जाकर नमस्कार कर भेट अर्पण की तथा विनय और युक्तिसे अपना आगमन निवेदन कर वे बोलने लगे। हे राजन् , विद्याधरोंके अधिपति अश्वनीव महाराजने आपको आज्ञा दी है कि, मैं रथावर्त पर्वतपर आनेवाला हूं। आप भी मेरे पीछे वहां अवश्य आवें । हम दोनो आपको लेने के लिये आगये हैं। चक्रवर्तीकी आज्ञा मस्तकपर धारण कर आप चलिये । दूतका भाषण सुनकर त्रिपृष्ट कोपसे इस प्रकार बोलने लगा। उष्ट्रग्रीव-ऊंटके समान जिसका कण्ठं है, वरप्रीव-गधेके समान जिसकी गर्दन हैं, अश्वग्रीव-घोडेके समान जिसका गला है ऐसे पुरुष हमने कहीं नहीं देखे । तब उन दोनोंने कहा कि, सर्व लोगोंसे मान्य, विद्याधरोंके स्वामी अश्वग्रीव महाराजकी ऐसे वचनोंसे अवहेलना करना आपको योग्य नहीं है। तब पुन: त्रिपृष्ट इस प्रकारसे बोले तुम्हारा स्वामी खगेट्-खग-पक्षीयोंका ईट--स्वामी है अर्थात् पंखोंसे युक्त है अतः उसको मैं देखने के लिये नहीं आऊंगा। दूतोंने कहा चक्रवर्तीको बिना देखे दर्पोक्ति योग्य नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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