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________________ श्री ना थ होंगे--अर्थात् आप अपने अनुपम ज्ञान से उनका स्वरूप समझावेंगे, तब सज्जन पुरुष उन्हें अखण्डरूप से प्राप्त करने की अभिलाषा करेंगे तथा संसार में डुबानेवाले जो राग आदि दोष सज्जनों के हैं, वे आपकी कृपा से ही नष्ट होंगे ।।४०।। हे देव ! संसार में न तो कोई आपके समान जगत् का बन्धु है; न आपके समान कोई समस्त जगत् का गुरु है; अपना एवं पराया हित करनेवाला भी आपके समान अन्य कोई नहीं । हे नाथ ! आपके समान पवित्र आत्मा का धारक भी कोई संसार के अन्दर दृष्टिगोचर नहीं होता ।।४१।। हे भगवान ! आपका शरीर स्वेद ( पसेव) रहित है; इसलिए पसेव रहित उत्तम शरीर के धारक आपके लिए नमस्कार है । आपका शरीर मल-मूत्र रहित --निर्मल है; ल्लि इसलिए आपके लिए नमस्कार है । आपके शरीर के अन्दर निन्दित रक्त नहीं; किंतु महामनोहर क्षीर के जल समुद्र के समान महास्वच्छ रक्त है; इसलिए क्षीर समुद्र के जल के समान रक्त से परिपूर्ण अंग के धारक आपके लिए नमस्कार है । हे नाथ ! आप समचतुरस्र संस्थान के धारक हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे भगवान ! आप आदि संहनन वज्रवृषभनाराच संहनन के धारक हैं एवं आपका दिव्य रूप है; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । आपका शरीर अत्यन्त सुगन्धि का धारक है एवं १००८ शुभ लक्षणों से शोभायमान है; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।।४२-४३।। देव ! जिसका किसी प्रकार का अनुमान नहीं किया जा सकता, ऐसे अनुपम पराक्रम के आप धारक हैं एवं सर्वदा हितकारी मार्ग सुझानेवाले हैं, इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे प्रभो ! आप परिमित एवं समीचीन बोलनेवाले हैं, इस प्रकार साथ-साथ ही उत्पन्न होनेवाले दश अतिशयों से अत्यन्त शोभायमान हैं, अर्थात् जन्म के समय आपके जो दश अतिशय होते हैं, वे अन्य किसी के नहीं हो सकते; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।। ४४।। हे भगवान ! ऊपर जितने गुणों का उल्लेख किया , उनसे भिन्न भी अपरिमित गुणों के आप भण्डार हैं एवं महादीप्तिमान ज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे प्रभो ! आप समस्त जगत् को अलौकिक आनन्द प्रदान करनेवाले हैं एवं अत्यन्त दुर्लभ मोक्षरूपी लक्ष्मी के प्यारे आप ही हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।।४५।। हे जगन्नाथ ! आपकी स्तुति कर हम आपसे यह प्रार्थना करना नहीं चाहते कि आप हमें समस्त जगत् की लक्ष्मी प्रदान करें; परन्तु प्रभो ! प्रार्थना यही है कि जिस अलौकिक ऐश्वर्य को आपने प्राप्त किया है, जिसके सामने सारी संसार की विभूतियाँ तुच्छ हैं, कृपा कर उस परमोत्तम ऐश्वर्य को हमें भी प्रदान कीजिए।। ४६ ।। ण Jain Education International For Private & Personal Use Only व श्री म ल्लि ना 5 5 5 5 थ पु रा ण ६० www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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