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________________ EF किया, तदुपरान्त रात्रि-दिन मनुष्य लोक के उत्तमोत्तम भोग भोगे, तीर्थंकर पद प्राप्त किया एवं बाल्य अवस्था में ही | घोर तप के द्वारा मोक्षरूपी रमणी को स्वीकार किया, वे मल्लिनाथ जिनेन्द्र हमें अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करें ।।१०२।। भट्टारक सकलकीर्ति कृत संस्कृत मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरजी न्यायतीर्थ विरचित वचनिका में रत्नत्रय का दूसरा परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ ।।२।। तृतीय परिच्छेद ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय नामक चार घातिया-कर्मरूपी बैरियों को जड़ से उखाड़ कर फेंक देनेवाले, अनन्त गुणों के समुद्र एवं तीनों लोक के जीव भक्तिपूर्वक जिनकी सेवा तथा पूजा करते हैं ऐसे भगवान श्रीमल्लिनाथ को मैं उनके अनुपम गुणों की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।।9।। समस्त प्रकार के प्रमादों को त्याग कर विनयपूर्वक मुनिराज वैश्रवण ने अंगों का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया तथा थोड़े ही दिनों में वे मुनिराज अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से ग्यारह अंग स्वरूप सिद्धान्त समुद्र के पार को प्राप्त हो गए, अर्थात् उन्हें ग्यारह अंगों का परिपूर्ण ज्ञान हो गया ।।२।। वे परम धीर-वीर मुनिराज अपनी सामर्थ्य को न छिपा कर प्रतिदिन बारह प्रकार के तपों को तपने लगे, जो तप निर्दोष थे तथा दुष्कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल के समान थे ।।३।। वे मुनिराज शून्य खण्डहरों में, श्मशान भूमियों में, पर्वत की गुफाओं में तथा जनशून्य वृक्षों की कोटरों में सिंह के समान निर्भय होकर निवास करते थे ।।४।। स्पर्शन आदि इन्द्रियों पर परिपूर्ण रूप से विजय पानेवाले तथा प्रमाद रहित वे मुनिराज सदा उत्तम ध्यान तथा अध्ययन में प्रवृत रहते थे तथा स्वप्न के दौरान भी वे राजकथा आदि विकथाओं का उल्लेख नहीं करते थे ।।५।। आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल के भेद से ध्यान के चार भेद माने जाते हैं इनमें आदि के ध्यान निन्दित हैं; क्योंकि उनसे निन्दित गतियों की प्राप्ति होती है तथा अन्त के धर्म्य तथा शुक्ल--ये दो ध्यान प्रशस्त हैं; क्योंकि उनसे स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त होते हैं । वे मुनिराज वैश्रवण मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से सदा चित्त को स्थिर कर उत्तम-ध्यान (धर्म्य-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान) का ही चिन्तवन करते थे; आर्त-ध्यान तथा रौद्र-ध्यानरूप अशुभ ध्यानों का कभी भी अपने चित्त में विचार न लाते थे ।।६।। जिस प्रकार पवन सर्वत्र अकेल विचरता रहता है, उसी प्रकार वे धीर बुद्धि के धारक मुनिराज ग्राम, खेट, मटम्ब, उद्यानों के प्रदेश, पर्वत तथा वन 444449 प Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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