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________________ FFFF सबल रहें तथा जब तक वृद्धावस्था शरीर पर अपना प्रभाव न डाले उसके पहिले ही गृहरूपी पाप का सर्वथा त्याग | कर देना चाहिए एवं परम दिगम्बरी जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर मोक्षरूपी लक्ष्मी के चित्त को आनन्द प्रदान करनेवाला घोर तप तपना चाहिए ।।६३-६४।। राजा वैश्रवण को वटवृक्ष के अकस्मात् जल जाने से संसार, शरीर, भोग तथा गृह आदि से वैराग्य तो हो ही गया था; परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से उनके स्वरूप का विचार करने से अब उसे वैराग्य दूना भी हो गया । संसार, शरीर श्रा आदि पदार्थों से उसका सर्वथा ममत्व छूट गया एवं दिगम्बरी दीक्षा धारण करने के लिए उसने पूर्णरूप से चित्त में || म ठान ली ।।६।। वह राजा अपने राज्य आदि से निराकांक्ष--विमुख हो गया एवं मुक्ति-लक्ष्मी को सिद्ध करने के लिए उसकी पूरी-पूरी अभिलाषा हो गई। बड़ के वृक्ष के समीप से वह प्रतिक्षण अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का ही बारम्बार चिन्तवन करता हुआ राजमहल तक पहुँचा ।।६६।। राजमहल में पहुँच कर राजा वैश्रवण ने सज्जनों द्वारा सर्वथा त्यागने योग्य राज्य-शासन को अपने पुत्र को प्रदान किया एवं जीर्ण तृण के समान अपने समस्त ऐश्वर्य का सर्वथा परित्याग कर वह श्रीनाग पर्वत की ओर चल दिया । श्रीनाग पर्वत पर समस्त कषाय एवं इन्द्रियों के बाँधने में सर्वथा नागपाश के समान अर्थात् जिनके पास कषाय एवं इन्द्रियों के विषय की लोलुपता फटकने तक नहीं पाती थी, ऐसे श्रीनाग नाम के मुनिराज विराजमान थे। अनेक बड़े-बड़े राजाओं के साथ राजा वैश्रवण उनके समीप गया एवं भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर मस्तक झुका कर नमस्कार किया। मुनिराज के मुखरूपी चन्द्रमा से झरनेवाला धर्मरूपी अमृत पिया, जिससे उसकी मोहरूपी अग्नि शान्त हो गई एवं वह अपने को सुखी अनुभव करने लगा। उसी समय उसने मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक बाह्य-अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया एवं अनेक राजाओं के साथ उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।६७-१००।। ___ जिन मुनिराज वैश्रवण ने पहिले तो तीव्र पुण्य के उदय से समस्त उत्तम सुख के समुद्र स्वरूप सारभूत धर्म ||२८ कार्यों को किया, पीछे से "अविनाशी अनुपम मोक्ष सुख प्राप्त हो जाए" इस अभिलाषा से समस्त सुखों की स्थान स्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, वे मुनियों के शिरोमणि मुनिराज वैश्रवण चिरकाल इस संसार में जयवन्त हो कर वृद्धि को प्राप्त हों ।।१०१।। जिन पवित्र भगवान मल्लिनाथ ने पहिले तो 'रत्नत्रय' नाम का परम पावन व्रत पालन 46 FEB Jain Education interational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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