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________________ कारण हैं एवं यम-नियम आदि की उत्पत्ति के भी प्रधान कारण हैं एवं इन मूलगुणों के पूर्ण रूप से पालन करने से ही चौरासी लाख उत्तर गुणों की सिद्धि होती है; इसलिए जो पुरुष उत्तर गुणों को प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें प्राणों के जाने पर भी कभी भी इन मूलगुणों का परित्याग नहीं करना चाहिए तथा इन समस्त मूलगुणों का आचरण करने से वास्तविक धर्म की प्राप्ति होती है, उस धर्म की कृपा से तीनों लोक का महान कल्याण प्राप्त होता है एवं क्रम से मोक्ष भी मिलता है । इसलिए जो श्रावक धर्म को प्राप्त करना चाहते हैं एवं अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्ति की पूरी-पूरी || अभिलाषा रखते हैं, उन्हें दिगम्बरी जैन दीक्षा धारण कर मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक समस्त मूलगुणों की अच्छी || म तरह आराधना करनी चाहिए । उनके पालन करने में किसी प्रकार की विराधना न हो, यह हर समय ध्यान में रखना चाहिए ।।६४-६६।। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य--ये दश लक्षण वास्तविक धर्मरूपी कल्पवृक्ष के बीज स्वरूप हैं--इनको धारण करने से वास्तविक धर्म की नियम से उत्पत्ति होती है । इसलिए जो पुरुष धर्म प्राप्त करना चाहते हैं एवं मोक्ष प्राप्ति की हृदय में पूरी-पूरी अभिलाषा. रखते हैं, उन्हें वास्तविक धर्म के कारण स्वरूप उत्तम क्षमा आदि लक्षणों का नियम से सेवन करना चाहिए एवं कभी भी उनसे विमुख नहीं रहना चाहिए ।।६७-६६।। जिस उत्तम क्षमा आदि धर्म का ऊपर उल्लेख किया गया है, वह समस्त निर्दोष धर्म निर्दोष तपों के द्वारा होता है। उत्तम आचरण, ध्यान, अध्ययन, वैराग्य भावना, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रियायें, निर्दोष समता। भाव एवं धर्मानुकूल संवेग की भावनाओं से होता है । इसलिए जो महानुभाव धर्म के अभिलाषी हैं, उन्हें धर्म की वृद्धि के लिए बारह प्रकार का तप, ध्यान, अध्ययन, शुभयोग एवं आहार आदि का सदा ध्यान रखना चाहिए ।।७०-७२।। इस परम पावन धर्म की कपा से ही पत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति होती है। इष्ट भोगों का मिलना भी धर्म से ही होता है। सज्जन एवं मित्र के समान सेवक भी धर्म की कृपा से प्राप्त होते हैं। माता-पिता आदि बाँधवों की प्राप्ति भी धर्म की ही कृपा से होती है । श्रृंगार की खानि एवं धर्म कार्यों में पूरी सहायता पहुँचाने वाली स्त्रियाँ, पर्वत के समान विशाल गजराज. ऊँचे-ऊँचे रथ एवं अच्छी तरह प्रशिक्षित अश्व भी धर्म की कपा से प्राप्त होते हैं; छत्र, चमर, राज्य आदि पदार्थ, उत्तमोत्तम भूषण, ऊँचे-ऊँचे मकान तथा अन्य उत्तमोत्तम पदार्थ धर्मात्माओं को स्वतः सिद्ध (प्राप्त) होते FFFFEB |९३ Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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