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________________ ।। है । परिग्रह समस्त अनर्थों का मूल कारण है । जो श्रावक वस्त्र एवं पात्र के सिवाय शेष समस्त प्रकार के परिग्रह || का त्यागी है अर्थात क्षेत्र, वस्तु आदि ऊपर कहे गए दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व हटा कर जो श्रावक निर्ममत्व परिणाम में लीन है एवं अपने आत्मस्वरूप के अन्दर विराजमान है तथा सन्तोषी है, वह पुरुष 'परिचित-परिग्रह-त्याग' नामक नवमी प्रतिमा का धारक है ।।५५।। इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टि, रागरहित एवं धर्म में लीन होकर इन नौ प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करनेवाला है, वह मध्यम श्रावक कहा जाता है ।।५६।। दशमी प्रतिमा का नाम || म|| 'अनुमति-त्याग' है । जो श्रावक घर आदि के कार्यों में एवं आहार आदि में रन्चमात्र भी अपनी अनुमति (सलाह) || म नहीं देता अर्थात् सदा मध्यस्थ भाव रखता है, वह श्रावक 'अनुमति-त्याग' नामक दशमी प्रतिमा का धारक कहा जाता | है।।५७।। तथा ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम 'उत्कृष्ट श्रावक' है। जो श्रावक अपने निमित्त से होनेवाले 'सदोष' आहार ना को अखाद्य के समान निन्दनीय जान कर उसे ग्रहण नहीं करता एवं क्षोभि वृत्ति से आहार ग्रहण करता है अर्थात् थ घर-बार से विरक्त होकर जहाँ मुनिराज विराजमान हों, उस वन में जाकर एवं गुरु के समीप में व्रतों को धारण कर तप का आचरण करता है, भिक्षाचर्या से आहार ग्रहण करता है एवं चैलखण्ड-कोपीन मात्र परिग्रह का धारक है, वह पुरुष 'उत्कृष्ट श्रावक' नामक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है ।।५८।। इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टि मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से इन ग्यारह प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करता है, वह 'उत्कृष्ट श्रावक' है एवं वह स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति का पात्र है ।।५६।। इस प्रकार गृहस्थ-धर्म का उपदेश देकर श्रीजिनेन्द्र भगवान ने कहा कि गृहस्थों को आनन्द प्रदान करने के लिए गृहस्थ-धर्म का वर्णन कर दिया गया; अब यतियों को आनन्द प्रदान करने के लिए यति-धर्म का व्याख्यान किया जाता है-- अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समितियाँ, पाँचों इन्द्रियों का निरोध १५, केशों का लोंच करना १६, समता आदि छ:आवश्यक २२, समस्त वस्त्र का त्याग २३, यावजीवन स्नान का न करना २४, भूमि पर शयन | २५, दन्तधावन नहीं करना २६, रागरहित खड़े-खड़े आहार लेना २७, एवं एक बार लघु भोजन का करना २८-ये अट्ठाईस मुनियों के मूलगुण हैं । समीचीन-धर्म के मूल कारण होने से इनकी मूलगुण संज्ञा है एवं ये मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ।।६०-६३।। मूलगुणों की प्रशंसा करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि वे मूलगुण वास्तविक धर्म के मूल Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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