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________________ तृतीय सर्ग : श्रासतां सुखमत्र संततमिति व्याहृत्य स स्नेहतः ते तस्यै कनकश्रियं श्रिय इव प्रत्यक्षमूर्त्यै ददौ ||६|| तद्वीक्षाक्षणिकापि सा 'पटुमतिः सद्यो विसृज्यामितं संभाव्य प्रतिपत्तिमात्मसदृशीं प्रापय्य ते गायिके । रेजे राजसुता निसर्गविनयालंकारितां बिभ्रती शोभासम्पदमद्भुतं त्रिभुवने रूपं हि सप्रश्रयम् ॥१००॥ इत्यसगकृतौ श्रीशान्तिपुराणे दमितारिसंदर्शनो नाम * तृतीयः सर्गः * Jain Education International इसप्रकार राजा की आज्ञा तथा उचित सन्मान प्राप्त कर जो संतुष्ट था ऐसे अमित ने उन गायिकाओं के अग्रेसर होकर तथा समुचित रीति से कन्या कनक श्री के अन्तःपुर जाकर उन गायिकान से स्नेह पूर्वक कहा कि यहां आप लोग सदा सुख से रहिये । इसप्रकार कह कर प्रत्यक्ष शरीर को धारण करने वाली लक्ष्मी के समान कन्या के लिये वे दोनों गायिकाएं सौंप दी ||६|| उन गायिकाओं को देखकर तीक्ष्णबुद्धि वाली कनक श्री ने अमित को शीघ्र ही विदा किया, गायिकाओं से संभाषण किया, और उन्हें अपने अनुरूप सत्कार प्राप्त कराया । इसप्रकार स्वाभाविक विनय से अलंकृत शोभारूप संपदा को धारण करती हुई राजपुत्री सुशोभित हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि विनय सहित रूप तीनों लोकों में अद्भुत होता है ।। १०० ।। इस प्रकार असग कवि विरचित श्री शान्तिपुराण में दमितारि के दर्शन का वर्णन करने वाला तीसरा सर्ग समाप्त हुआ || ३ || १ तीक्ष्णबुद्धि: । ३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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