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________________ ३४ श्रीशान्तिनायपुराणम् सर्वतो वारनारीभिधूयमानैः प्रकीर्णकः । सेव्यमानं शरज्ज्योत्स्नाकल्लोलसिरेऽपि वा ।।६।। प्रस्तावसदृशं किञ्चित्परिहासेन जल्पितम् । प्राकर्ण्य वन्दिनो वाक्यं स्मयमानं तदुन्मुखम् ॥६०॥ यथोक्तंकृतकृत्येभ्यो भृत्येभ्यः पारितोषिकम् । दापयेति समासन्नमादिशन्तं च 'मौलिकम् |६|| क्रमशस्तत्समावेदीमास्थितान् खेचरेश्वरान् । कटाक्षेरनुगृह्णन्तमन्तःशुद्ध रितस्ततः ॥२॥ प्राभिरन्याभिरप्येवं राजलीलाभिरन्वितम् । दमितारि सभामध्ये पश्यतस्ते स्म गायिके ॥३॥ इतो वोक्षस्व देवेति प्राग निदिश्य निवेदिते । अमितेन ततोऽद्राक्षीद्राजा विस्मित्य गायिके ॥४॥ ततस्तद्वीक्षणोद्भूतविस्मयाकुलचेतसा । राजा प्रकृतिधीरोऽपि प्रदध्याविति तत्क्षरणम् ॥६५॥ सम्यगप्राकृताकारे सत्यमेते सदेवते । केनापि हेतुना भूतामेवं किं नागकन्यके ॥६६॥ इति सत्सभया साधं राजा निध्याय ते चिरम् । प्रकारयत्तयोः क्षिप्रं सपर्यामासनादिकम् । १७॥ ते संभाष्य स्वयं राजा तमित्यमितमादिशत् । प्रर्पयते यथायोग्यं कन्यायाः कनकश्रियः ।।८।। • शार्दूलविक्रीडितम् * इत्यावेशमवाप्य भतु रुचितां पूजां च तुष्टोऽमितः भूत्वा पूर्वसरस्तयोः समुचित गत्वा कुमारीपुरम् । सामुद्रिक शास्त्र में वरिणत मत्स्यादि के चिह्नों से सहित ) अपूर्व दाहिने पैर को ऊपर कर लीला पूर्वक बैठा हुआ था ।।१८।। जो सब ओर वाराङ्गनाओं के द्वारा चलाये हुए चमरों से सेवित हो रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानों दिन में भी शरद ऋतु की चांदनी की तरङ्गों से सेवित हो रहा हो ।।८६।। जो प्रस्ताव-अवसर के अनुरूप हँसी में कहे हुए वन्दी के किसी वचन को सुनकर उसकी ओर मुसक्या रहा था ।।१०।। कहे अनुसार कृतकृत्य सेवकों के लिये पारितोषिक दिलामो .. ...... इसप्रकार जो निकटवर्ती मन्त्री प्रादि प्रमुख वर्ग को आदेश दे रहा था ||११|| जो क्रमसे सभा को वेदी पर बैठे हुए विद्याधर राजाओं को अन्तरङ्ग से शुद्ध कटाक्षों के द्वारा यहां वहां अनुगृहीत कर रहा था ॥६२।। जो इन तथा इसप्रकार की अन्य लीलाओं से सहित था ऐसा राजा दमितारि को उन गायिकाओं ने सभा के बीच देखा ॥६३|| तदनन्तर हे देव ! इधर देखिये, इसप्रकार पहले कह कर अमित ने जिनकी सूचना दी थी ऐसी गायिकाओं को राजा ने आश्चर्य पूर्वक देखा ॥१४|| राजा दमितारि यद्यपि स्वभाव से धीर था तो भी उन गायिकामों को देखने से उत्पन्न प्राश्चर्य से प्राकुलित चित्त के द्वारा तत्क्षण इसप्रकार का विचार करने लगा ।।१५।। समीचीन तथा विशिष्ट आकार को धारण करने वाली ये गायिकाए सचमुच ही देवाधिष्ठित हैं। किसी कारण क्या नाग कन्याएं इस रूप हुई हैं ।।६।। इसप्रकार श्रेष्ठ सभा के साथ चिरकाल तक उन गायिकाओं को देख कर राजा ने शीघ्र ही प्रासन आदि के द्वारा उनका सत्कार कराया ॥७॥ राजा ने स्वयं उनसे सभाषण कर प्रमित को आदेश दिया कि इन्हें यथायोग्य रीति कनक श्री कन्या के लिये सौंप दो। ६८|| - १ अमात्यादिमूलवर्गम् २ समवलोक्य ३ गायिके ४ एतन्नामकन्यायाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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