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________________ मेरु मंदर पुराण तथा इनके पुत्र परिवार को समुद्र में डालूगा। उस समय प्रादित्य नाम का देव लांतव कल्प से परिनिर्वाण पूजन करने आगया और धरणेंद्र को कोधित तथा विद्या दृष्ट को नागपाश में बंधा देखकर धरणोंद्र को दयाभाव का उपदेश देना प्रारम्भ किया कि हे धरणद्र तुम सज्जनोत्तम धरणेंद्र हो, यह नीच लोग हैं। इन पर -- इतना क्रोध करना ठीक नहीं, इन पर दया करो। इस सम्बन्ध में कुछ कहता हूं सुनो। पूर्वकाल में जब वृषभनाथ भगवान तपस्या कर रहे थे, उस समय नमि और विनमि दोनों राजपुत्र आदिनाथ भगवान के पास प्राकर कुछ मांग रहे थे कि हे भगवन् प्रापने सब का बटवारा कर दिया, हम उस समय मौजद नहीं थे। अब हम को भी हमारा हिस्सा दीजिये । इस प्रकार कहते हए संगीत रूप में गाने लगे। तब धरणद्र ने अवधिज्ञान से जाना कि ये दोनों भगवान पर उपसर्ग कर रहे हैं। उस धरणेंद्र ने भगवान के पास जाकर कान के समीप मुह लगाया और उन नमि विनमि से कहा कि भगवान ने मुझ को कान में कह दिया है मेरे साथ चलो। तदनंतर वह धरणेंद्र उनको ल गया और विनमि को विजयाद्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में साठ नगरियों का अधिपति बना दिया और कनकपल्लव नाम की नगरी को राजधानी बना दिया। और दक्षिण श्रेणी को पचास नगरियों का अधिपति नमि को बनादिया और रथनपुर चक्रवाल नगर को राजधानी बना दिया। उन दोनों विनमि और नमि को पांचसौ महा विद्या और सात सौ क्षुल्लक विद्या देकर सब द्याधरों को बुलाकर कह दिया कि आगे से इनकी आज्ञा का पालन करो। ऐसा कह कर वह धरणेंद्र अपने स्थान चला गया। और यह भी बिनमि से कहा कि यह विद्यु दंष्ट्र तुम्हारे ही पूर्ववंश का विद्याधर है । इसलिये उसको नष्ट करना ठीक नहीं है। इसलिए तुम इन पर क्रोध करना छोड दो। .. इस बात को सुनकर धरणेंद्र ने कहा कि कर्म रूपो शत्रु को नाश कर मुक्ति गया वह संजयंत पूर्वजन्म का मेरा भाई है । उस पर इसने उपसर्ग किया है। मैं इसको नहीं छोडूगा । तदनन्तर आदित्याभ देव कहने लगा कि यह संजयंत तुम्हारा एक ही जन्म का भाई था और दूसरे भवों में न मालम तुम्हारा यह कौन था। तम इन पर कषाय व क्रोध मत करो और कर्म का बंध करना ठीक नहीं है। यदि विचार किया जाय तो संसार में शत्रु मित्र कोई नहीं है, सभी समान हैं । व्यवहार में शत्रु है और मित्र है। निश्चय से इस आत्मा का कोई शत्रु व मित्र नहीं है। इसलिए ज्ञानी सज्जन लोग राग द्वेष नहीं करते हैं। एक जन्म में हुए उपसर्ग को देखकर तुम इतना क्रोध करते हो तो पहले भव में उसने कितने भवों में इसको दुःख व कष्ट दिये होंगे। उस समय तुमने क्या किया ? यह विद्य द्दष्ट्र पूर्व भवों में राजा सिंहसेन महाराज का सत्यघोष नाम का मंत्री था। राजा ने उस मंत्री के मायाचार करते समय कुछ दण्ड दिया था। उस वैर विरोध के कारण क्रोधित ग्राज तक जन्म २ उपसर्ग करता पाया है। इन महामनि ने शांत स्वभाव से उपसर्ग सहकर सद्गति प्राप्त की। और अन्त में मोक्ष पद को प्रास किया। और विद्याधरों ने उपसर्ग करके पाप व अपकीर्ति प्राप्त की। इस कारण क्रोध तथा क्षमा का फल अापने भली भांति देख लिया। इसको अपने हृदय में धारण करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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