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________________ मेरु मंदर पुराण ६ 1 उन्होंने निदान बंध कर लिया कि मुझको भी इस तपश्चरण के फल से धरणेंद्र के समान फल मिले। कुछ समय बाद जयंत शरीर छोडकर धरणेंद्र हो गया। कुछ समय के पश्चात् वैजयंत केवली ने अघातिया कर्मों का नाश करके सिद्ध पद को प्राप्त किया । द्वितीय अध्याय संजयंत मुनि को मुक्ति वैजयंत मुनि को मोक्ष जाने के पश्चात् प्राये हुए धरणेंद्र आदि देव मोक्ष कल्याण की पूजा करके अपने २ स्थान को चले गये। उस समय संजयंत मुनि भी उस मोक्ष कल्याणक को पूजा आदि देखकर अरण्य में चले गये और ध्यान में निमग्न हो गये। जिस समय संजयंत मुनि ध्यान में मग्न ये उस समय मुनिराज के ऊपर से आकाश मार्ग से विद्य ुदंष्ट्र नाम का विद्याधर जा रहा था । मुनिराज के तप के प्रभाव से उस विद्याधर का विमान रुक गया। विमान को रुका देख कर वह नीचे प्राया और देखा कि संजयंत मुनि तपस्या कर रहे हैं । उन मुनि को देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ । और उनको उठा कर लेजाकर विमान में बिठाया और विजयार्द्ध पर्वत के समीप में बहने वाली कुमुदवती, सुवर्णवती, हेमवती गजवती और चंडवेग इन पांचों नदियों के संगम के तटपर ऊपर से पटक दिया और अनेक प्रकार के उपसर्ग किये 1 मुनि समताभाव से विचार करने लगे कि यह मेरा पूर्वभव का उदय है। मुझे भोगना ही पडेगा । शत्रु मित्र प्रादि सभी में समता भाव रख कर ध्यान में ही मग्न रहे । उस विद्यद्दष्ट्र विद्याधर ने अपने नगर में आकर अन्य २ विद्याधरों से कहा कि अपने नगर में एक दुष्ट राक्षस ग्राया है। यदि यह यहां रहेगा तो हम सब को इस रात्रि में आकर खा जायेगा। इस कारण सब वहां चलो। ऐसा विश्वास दिलाकर विद्याधरों ने उन मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया। उनने अनेक प्रकार के उपसर्ग सहन करते हुए धर्म ध्यान पूर्व घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। उस समय तीन प्रकार के देवों ने आकर पूजा की । तदनंतर ग्रघातिया कर्मों का नाश कर वे मुनि मोक्ष चले गये । तत्पश्चात् धरणेंद्र अनेक देवों सहित श्राया । यह धरणेंद्र जो पूर्व जन्म का जयंत नाम का भाई था, उसने ग्राकर मोक्ष कल्याणक की भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की। उस धरद्र ने वहां ग्रास पास में कई प्रकार के शस्त्र पत्थर आदि पड़े देख कर तथा विद्यद्दष्ट्र को सपरिवार पड़ा देख कर अवधिज्ञान से जान लिया कि यह उपसर्ग इस affair द्वारा किया गया है और उसको लात मारी। उसने क्रोधित होकर विद्य ुद्दष्ट्र को व अन्य विद्याधरों को नागपाश से बांध दिया। तब वे अन्य विद्याधर हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगे कि हमको मालूम नहीं था - -यह मुनि कौन हैं। हम इसके विश्वास पर यहां आगये । और आकर मुनिराज पर उपसर्ग किया हम को क्षमा कीजिये । तत्र धरणेंद्र को उन पर दया आ गई और अन्य विद्याधरों को छोड़ दिया, और यह कहा कि विद्यद्दष्ट्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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