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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८७गुणः गुणान्तरं पर्यायादन्यः पर्यायः पर्यायान्तरम् एवमर्थादर्थान्तरगुणगुणान्तरपर्यायपर्यायान्तरेषु षट्सु योगत्रयसंक्रमणाद् अष्टादश भङ्गा भवन्ति १८ । अर्थाद्गुणगुणान्तरपर्यायपर्यायान्तरेषु चतुर्षु योगत्रयसंक्रमणेन द्वादश भङ्गा भवन्ति १२ । एवमर्थान्तरस्यापि द्वादश भङ्गा भवन्ति १२ । सर्वे पिण्डिता द्वाचत्वारिंशद्भङ्गा भवन्ति ४२ । एवंविधप्रथमशुक्लध्याममुपशान्तकषायेऽस्ति क्षीणकषायस्यादौ अस्ति । तत् शुक्लतरलेश्याबलाधानम् अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् उपात्तार्थव्यञ्जनयोगसंक्रमणं चतुर्दशदशनवपूर्वधरयतिवृषभनिषेव्यमुपशान्तक्षीणकषायविषयमेदात् वर्गापवर्गगतिफलदायकमिति। उत्कृष्टेन कियद्वारम् उपशमश्रेणीमारोहतीति प्रश्ने प्राह । 'चत्तारि बारसमुवसमसेढिं समारुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वादि ॥' उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वारानेवारोहति क्षपितकर्माशो जीवः । उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति । संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो नियमेन निर्वात्येव निर्वाणं प्राप्नोत्येव ॥ द्वितीयशुक्रध्यानमुच्यते । एकस्य भावः एकत्वं, वितर्को द्वादशाङ्गः, [ अवीचारोऽसंक्रान्तिः। एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्यार्थव्यञ्जनयोगानामवीचारोऽसंक्रान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्कावीचारं ध्यानम् । ] एकयोगेन अर्थगुणपर्यायेष्वन्यतममन्यस्मिन्नवस्थानं पूर्ववित्पूर्वधरयतिवृषभनिषेव्यं द्रव्यभावात्मकज्ञानदर्शनावरणान्तरायघातिकर्मत्रयवेदनीयप्रभृत्यघातिकर्मसु केषांचिद्भावकर्मविनाशनसमर्थमुत्तमतपोऽतिशयरूपं पूर्वोक्तक्षीणकषायावशिष्टकालभूमिकम् , असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरं भवति । एवंविधद्वितीयशुक्रध्यानेन घातित्रयविनाशानन्तरं केवलज्ञानदर्शनादिसंयुक्तो भगवान् तीर्थकर इतरो वा उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिकालं विहरति सयोगिभट्टारकः । स यदा अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः समस्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति, तदा बादरकाययोगे स्थित्वा क्रमेण बादरमनोवचनोच्छ्वासनिःश्वासं बादरकायं च निरुध्य ततः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोच्वासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगः स्यात् । स एव सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं तृतीयमिति । यदा पुनरन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदधिकस्थितिकाशः सयोगिजिनः समयैकखण्डके चतुःसमये दण्डकपाटप्रतरलोकपूर्णाभिखात्मप्रदेशविसर्पणे जाते तावद्भिरेव समयैरुपसंहृतप्रदेशविसर्पणः । भायुष्यसमीकृताधातित्रयस्थितिः निर्वर्तितसमुद्धातक्रियः पूर्वशरीरपरिमाणो भूत्वा और शुक्लध्यान निर्विकल्पक होता है। आर्त और रौद्रध्यानको छोड़कर अपनी आत्मामें मनको लय करके आत्मसुख खरूप परमध्यानका चिन्तन करना चाहिये । परमध्यानही वीतराग परमानन्द सुखखरूप है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप है। परमध्यानही शुद्धात्मखरूप है, परम ध्यानही परमात्म खरूप है, एक देश शुद्ध निश्चय नयसे अपनी शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृतके सरोवरमें राग आदि मलसे रहित होनेके कारण परमध्यान ही परमहंसखरूप है, परमध्यानही परमविष्णु खरूप है, परमध्यानही परम शिवखरूप है, परम ध्यानही परम बुद्ध खरूप है, परमध्यान ही परम जिनखरूप है, परम ध्यानही खात्मोपलब्लिलक्षण रूप सिद्धखरूप है, परम ध्यान ही निरंजन खरूप है, परम ध्यानही निर्मल वरूप है, परम ध्यानही खसंवेदन ज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मदर्शन है, परम ध्यान ही परमात्मदर्शनरूप है, परम ध्यानही ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव स्वरूप है, परम ध्यान ही शुद्ध चारित्र है, परम ध्यान ही अत्यन्त पवित्र है, परम ध्यान ही परमतत्त्व है, परम ध्यान ही शुद्ध आत्मद्रव्य है, क्यों कि वह शुद्ध आत्मद्रव्यकी उपलब्धिका कारण है, परमध्यान ही उत्कृष्ट ज्योति है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मानुभूति है, परमध्यान ही आत्मप्रतीति है, परमध्यान ही आत्मसंवित्ति है, परमध्यान ही खरूपकी उपलब्धिमें कारण होनेसे खरूपोपलब्धि है, परम ध्यान ही नित्योपलब्धि है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाधि है, परमध्यान ही परमानन्द है, परमध्यान ही नित्य आनन्दखरूप है, परमध्यान ही सहजानन्द है, परमध्यान ही सदा आनन्दखरूप है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मपदार्थके अध्ययनरूप है, परमध्यान ही परम स्वाध्याय है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षका उपाय है, परमध्यान ही एकाग्रचिन्ता-निरोध (एक विषयमें मनको लगाना) है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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