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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८४ क्षयादुपशमाद्वा । वैडूर्यमणिशिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च ॥ कषायमलविश्लेषात्प्रशमाद्वा प्रसूयते । यतः पुंसामतस्तज्ज्ञैः शुक्लमुक्त निरुक्तिकम् ॥' इति ॥ ४८३ ॥ पडिसमयं सुज्झतो अनंत-गुणिदाएं उभय-सुद्धीए । पढमं सुकं झायदि आरूढो उहय सेढीसु ॥ ४८४ ॥ ३८० [ छाया-प्रतिसमयं शुध्यन् अनन्तगुणितया उभयशुद्ध्या । प्रथमं शुकं ध्यायति आरूढः उभयश्रेणीषु ॥ ] ध्यायति स्मरति चिन्तयति । किं तत् । प्रथमं शुक्रं पृथक्त्ववितर्कवीचाराख्यं शुक्लध्यानं ध्यायति । कः । आरूढः मुनिः आरोहणं प्राप्तः चटितः । क्व । उभयश्रेणिषु अपूर्वकरणगुणस्थानादिषु उपशमश्रेण्यां च । कथंभूतः । उपशमको वा क्षपको वा मुनिः प्रतिसमयं शुध्यन् समयं समयं प्रति शुद्धिं निर्मलतां गच्छन् प्रतिसमयम् अनन्तगुणविशुद्ध्या वर्तमान इत्यर्थः । कया उभयशुद्ध्या अन्तर्बहिर्निर्मलतया । अथवा उपशमक्षपकश्रेण्योः. अपूर्वकरणपरिणामानां शुद्ध्या अनन्तगुणविशुद्ध्या । कीदृक्षया तया । अनन्तगुणितया पूर्वपरिणामात् उत्तरपरिणामः अनन्तगुणविशुद्ध्या निर्मलतया वर्धमानः पूर्वपरिणामान् उत्तरपरिणामा षड्गुणवर्धमानाः अत एव अनन्तगुणिता तया वर्धमानः । तथा हि उपशमविधानं तावत्कथ्यते । वज्रवृषभनाराचवज्रनाराचना राचसंहननेषु मध्ये अन्यतमसंहननस्थो भव्यवरपुण्डरीकः चतुर्थपञ्चमषष्ठम सप्तमेषु गुणस्थानेषु ही इसका नाम शुक्ल पड़ा है || ४८३ || अर्थ - उपशम और क्षपक, इन दोनों श्रेणियोंपर आरूढ़ हुआ और प्रतिसमय दोनों प्रकारकी अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ मुनि पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लध्यानको ध्याता है ॥ भावार्थ - सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान होता है। उसके पश्चात् दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं, एक उपशम श्रेणि और एक क्षपकश्रेणि । उपराम श्रेणिमें मोहनीय कर्मका उपशम किया जाता है, उपशमका विधान इस प्रकार कहा है-वज्रवृषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच संहननमेंसे किसी एक संहननका धारी भव्य जीव चौथे, पाँचवे, छठे और सातवें गुणस्थानमेंसे किसी एक गुणस्थान में धर्मध्यानके बलसे अन्तरकरणके द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्वं, सम्यकू मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियों का उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि होता है, अथवा इन्हीं सात प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। उसके पश्चात् सातवें गुणस्थान से उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होनेके अभिमुख होता है । तब अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में से अधःप्रवृत्त करणको करता है । उसको सातिशय अप्रमत्त कहते हैं । वह अप्रमत्त मुनि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें उपशमश्रेणि पर चढकर पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यानके बलसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको करता हुआ प्रतिसमय कर्मों की गुणश्रेणि निर्जरा करता हैं । वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर उसके बाद अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में आता है । और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यानके बलसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और हास्य आदि नोकषायों, चारित्रमोहनीयकर्मकी इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता हुआ सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में आता है । वहाँ सूक्ष्मकृष्टिरूप हुए लोभ कषायका वेदन करता हुआ अन्तिम समयमें संज्वलन लोभका उपशम करता है । उसके पश्चात् उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यानके बलसे समस्त मोहनीयकर्मका 1 १ ब गुणिदाय, स ग गुणदाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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