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________________ -४८३] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३७९ चिंतइ देहत्थं देहं च ण चिंतए कि पि । ण सगयपरगयरूवं तं गयरूवं णिरालंबं । जत्थ ण झाणं झेय झायारो गेय चितणं किंपि । ण य धारणावियप्पो तं झाणं सुट्ट भाणिज ॥' 'धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहुर्तिका । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्व शाश्वती॥ इति रूपातीतं चतुर्थ ध्यानम्। धर्मध्यानवर्णनं समाप्तम् ॥ ४८२ ॥ अथ शुक्ध्यानं गाथापञ्चकेन विशदयति । जत्थ गुणा सुविसुद्धा उवसम-खमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुक्का तं सुकं भण्णदे झाणं ॥४८३॥ [छाया-यत्र गुणाः सुविशद्धाः उपशमक्षपणं च यत्र कर्मणाम। लेश्या अपि यत्र शका तत शर्क भण्यते ध्यानम॥1 तत् प्रसिद्ध शुक्र शुक्राख्यं ध्यानं भण्यते कथ्यते जिनैरिति शेषः । तत् किम् । यत्र गुणाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादयो गुणाः सकलमूलोत्तरगुणा वा । कथंभूतास्ते गुणाः । सुविशुद्धाः शङ्कादिमलरहिताः । च पुनः, यत्र ध्याने कर्मणां मिथ्यात्वादि. प्रकृतीनाम् उपशमः करणत्रयविधानेन उपशमनम्। वज्रवृषभनाराचवज्रनाराचनाराचसंहननाविष्टो मुनिः अपूर्वोपशमकानिवृत्त्युपशमकसूक्ष्मसापरायोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये उपशमश्रेणिचटितः उपशमसम्यग्दृष्टिरष्टाविंशतिमोहनीयकर्मप्रकृतीनाम् उपशमं विदधाति, पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्रध्यानबलेन उपशमं करोति । क्षायिकसम्यग्दृष्टिस्तु एकविंशतिप्रकृतीनामुपशमं विदधाति । तयानबलेनेत्यर्थः । अथवा क्षपणं कर्मणां निःशेषनाशनं च । वनवृषभनाराच. संहननस्थः क्षपकः अपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसापरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये क्षपकरेण्यारूढः प्रथमशुक्लध्यानबलेन ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनां क्षयं विदधाति इत्यर्थः । अपि पुनः, यत्र शुक्लध्याने लेश्यापि शुक्ला, अपिशब्दात न केवलं ध्यानं शकं शुक्रा शुकलेश्या, शुक्रलेश्यासहितं शुकं ध्यानं चतुर्थ स्यादित्यर्थः । तथा चोकं ज्ञानार्णवे। 'आदि. संहननोपेतः सर्वज्ञः पुण्यचेष्टितः । चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्ल ध्यातुमर्हति ॥' 'शुचिगुणयोगाच्छाक कषायरजसः रूपका विचार करे, उसे रूपातीत ध्यान कहते हैं । जिसमें ध्यान धारणा ध्याता ध्येय, और का कुछ भी विकल्प नहीं है वही ध्यान श्रेष्ठ ध्यान है । इस प्रकार चौथे रूपातीत ध्यानका वर्णन जानना चाहिये । धर्मध्यानका काल अन्तर्मुहूर्त है, उसमें क्षायोपशमिक भाव और शुक्ल लेश्या ही होती है । इस तरह धर्म ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ॥ ४८२ ॥ आगे पाँच गाथाओंसे शुक्ल ध्यानको कहते हैं । अर्थ-जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं, जहाँ कोंका उपशम और क्षय होता है, तथा जहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है, उस ध्यानको शुक्ल ध्यान कहते हैं ॥ भावार्थ-जिस ध्यानसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुण निर्मल होजाते हैं, जिसमें वज्रवृषभ नाराच संहनन, वज्रनाराच-संहनन और नाराच-संहननका धारी उपशमसम्यग्दृष्टी मुनि उपशम श्रोणिपर चढकर पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक शुक्लध्यानके बलसे मोहनीयकर्मकी अठाईस प्रकृतियोंका उपशम करता है और क्षायिक सम्यग्दृष्टी मोहनीयकी शेषबचीं इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता है, तथा जिसमें वनवृषभनाराच संहननका धारी मुनि क्षपक श्रेणिपर चढकर ज्ञानावरण आदि कर्मोका क्षय करता है, और जिसमें लेश्या मी शुक्ल ही होती है वह ध्यान शुक्लध्यान है । ज्ञानार्णवमें भी कहा है-'जिसके पहला वज्रवृषभ नाराच संहनन है, जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका जाननेवाला है, और जिसका चारित्र भी शुद्ध है वही मुनि चारों प्रकारके शुक्ल ध्यानोंको धारण करनेके योग्य है । कषायरूपी रजके क्षय अथवा उपशमसे जो आत्मामें शुचिपना आता है उस शुचिगुणके सम्बन्धसे १ मग खवर्ण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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