SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४७६] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३६३ कलत्रवस्त्राभरणादयः तेषां हरणे चौर्यकर्मणि ग्रहणे अदत्तादाने शीलं स्वभावो यस्य स तथोक्तः। इति स्तेयानन्दः । तद्यथा “यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यत्संततम् । चौर्येणापहृते परैः परधने यजायते संभ्रमस्तचौर्यप्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं सुनिन्दास्पदम् ॥" "द्विपदचतुष्पदसारं धनधान्यवराङ्गनासमाकीर्णम् । वस्तु परकीयमपि मे स्वाधीनं चौर्यसामर्थ्यात् ॥" "इत्थं चुराया विविधप्रकारः शरीरिभिर्यः क्रियतेऽमिलाषः । अपारदुःखार्णवहेतुभूतं रौद्रं तृतीयं तदिह प्रणीतम् ॥” इति तृतीयं चौर्यानन्दध्यानम् ३ । खकीयविषयसुरक्षणे दक्षा स्वकीययुवतीद्विपदचतुष्पदखाद्यखाद्याशनपानसुस्वरश्रवणसुगन्धगन्धग्रहणधनधान्यगृहवस्त्राभरणादीनां रक्षणे रक्षायां यत्नकरणे दक्षः चतुरः निपुणः । इदं विषयानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । तद्यथा। "बह्वारम्भपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते, यत्संकल्पपरम्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः । यच्चालम्ब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते, तत्तुर्य प्रवदन्ति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ॥” इति विषयाभिलाषे आनन्दं हर्षः विषयानन्दश्चतुर्थ ध्यानम् ४ । कीदृक्षः । तद्गतचित्ताविष्टः तेषु हिंसानृतस्तेयविषयेषु गतं चित्तं मनः तेनाविष्टः युक्तः । तद्यथा । हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोर्भवति । पञ्चगुणस्थानस्वामिकमित्यर्थः । मिथ्यात्वादिपञ्चमगुणस्थानपर्यन्तानां जीवानां रौद्रध्यानं स्यात् । ननु अविरतस्य रौद्रध्यानं जाघटीत्येव देशविरतस्य कथं संगच्छते। साधूक्तं भवता यत् एकदेशेन विरतस्य कदाचित्प्राणातिपाताद्यभिप्रायात् । धनादिसंरक्षणत्वाच्च कथं न घटते, परमयं तु विशेषो देशसंयतस्य रौद्रमुत्पद्यते एव परं नरकादिगतिकारणं तन्न भवति, सम्यक्तवरत्नमण्डितत्वात् । तथा ज्ञानार्णवे। "कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातफलाकितम् । रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात् पञ्चगुणभूमिकम् ॥" "करतादण्डपारुष्य वच्चकत्वं कठोरता । निर्दयत्वं च लिङ्गानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः॥" जिसे आनन्द आता है वह चौर्यानन्दि रौद्रध्यानी है । कहा भी है-प्राणियोंको जो रातदिन दूसरोंका धन चुरानेकी चिन्ता सताती रहती है, तथा चोरी करके जो अत्यन्त हर्ष मनाया जाता है, तथा चोरीके द्वारा पराया धन चुराये जानेपर आनन्द होता है, इन्हें चतुर पुरुष चोरीसे होनेवाला रौद्रध्यान कहते हैं, यह रौद्रध्यान अत्यन्त निन्दनीय है ॥ दास, दासी, चौपाये, धन, धान्य, सुन्दर स्त्री वगैरह जितनी भी पराई श्रेष्ठ वस्तुएँ हैं, चोरीके बलसे वे सब मेरी हैं। इस प्रकार मनुष्य अनेक प्रकारकी चोरियोंकी जो चाह करते हैं वह तीसरा रौद्र ध्यान है, जो अपार दुःखोंके समुद्रमें डुबानेवाला है ॥ अपने स्त्री, दास, दासी, चौपाये, धन, धान्य, मकान, वस्त्र, आभरण वगैरह विषय सामग्रीकी रक्षामें ही रात दिन लगे रहना विषयानन्दि रौद्रध्यान है । कहा भी है-इस लोकमें रौद्र आशयवाला प्राणी बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहकी रक्षाके लिये तत्पर होता हुआ जो संकल्प विकल्प करता है तथा जिसका आलम्बन पाकर मनस्वी अपनेको राजा मानते हैं। निर्मलज्ञानके धारी गणधर देव उसे चौथा रौद्रध्यान कहते हैं ।। तत्त्वार्थसूत्रमें भी कहा है कि हिंसा, झूठ, चोरी और विषयसामग्रीकी रक्षामें आनन्द माननेसे रौद्रध्यान होता है । वह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर, देशविरत नामक पञ्चमगुणस्थान पर्यन्त जीवोंके होता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो व्रती नहीं हैं, अविरत हैं उनके भले ही रौद्रध्यान हो, किन्तु देशविरतोंके रौद्रध्यान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि हिंसा आदि पापोंका एक देशसे त्याग करनेवाले देशविरत श्रावकके भी कभी कभी अपने धन वगैरह की रक्षा करनेके निमित्तसे हिंसा वगैरहके भाव हो सकते हैं। अतः रौद्रध्यान हो सकता है, किन्तु वह सम्यग्दर्शन रूपी रत्नसे शोभित है इस लिये उसका रौद्रध्यान नरक गतिका कारण नहीं होता है । चारित्रसारमें भी कहा है-यह चार प्रकारका रौद्रध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालेके होता है, और मिथ्यादृष्टिसे लेकर पंचमगुणस्थानवी जीवोंके होता है । किन्तु मिथ्यादृष्टियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy