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________________ ३६२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४७६ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते । स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते ॥” “हिंसाकर्मणि कौशलं निपुणता पापोपदेशे भृशं, दाक्ष्यं नास्तिकशासने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रतिः। संवासः सह निर्दयैरविरतं नैसर्गिकी क्रूरता, यत्स्यादेहभृतां तदत्र गदितं रौद्रं प्रशान्ताशयैः ॥" "केनोंपायेन घातो भवति तनुमतां कः प्रवीणोऽत्र हन्ता, हन्तुं कस्यानुरागः कतिभिरिह दिनैहन्यते जन्तुजातम् । हत्वा पूजां करिष्ये द्विजगुरुमरुतां पुष्टिशान्त्यर्थमित्थं, यत्स्याद्धिंसामिनन्दो जगति तनुभृतां तद्धि रौद्रं प्रणीतम् ॥" "गगनजलधरित्रीचारिणां देहभाजां, दलनदहनबन्धच्छेदघातेषु यत्नम् । दृतिनखकरनेत्रोत्पाटने कौतुकं यत् , तदिह गदितमुच्चैश्चेतसां रौद्रमेवम् ॥” जन्तुपीडने दृष्टे श्रुते स्मृते यो हर्षः हिंसानन्दः परेषां वधादिचिन्तने हिंसानन्दः, इति हिंसानन्दः प्रथमः १। असत्यवचने परिणतः मृषावादकथने परिणतः अनृतानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । तथाहि । "विधाय वञ्चकं शास्त्र मार्गमुद्दिश्य निर्दयम् । प्रपात्य व्यसने लोकं भोक्ष्येऽहं वाञ्छितं सुखम् ॥" "असत्यचातुर्यबलेन लोकाद्वित्तं ग्रहीष्यामि बहुप्रकारम् । तथाश्वमातङ्गपुराकराणि कन्यादिरत्नानि च बन्धुराणि ॥" "असत्यसामर्थ्यवशादरातीन् नृपेण वान्येन च घातयामि । अदोषिगां दोषचयं विधाय चिन्तेति रौद्राय मता मुनीन्द्रः ॥” “अनेकासत्यसंकल्पैर्यः प्रमोदः प्रजायते । मृषानन्दात्मक रौद्रं तत्प्रणीतं पुरातनैः ॥" कीदृक्षः सन् । तत्रैव स्थिरचित्तः अनृतानन्दे विक्षिप्तचित्तः। इति मृषानन्दं द्वितीयं रौद्रध्यानम् २ ॥ ४७५॥ पर-विसय-हरण-सीलो सगीय-विसए सुरक्खणे दक्खो । तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं पि ॥ ४७६ ॥ [छाया-परविषयहरणशीलः स्वकीयविषये सुरक्षणे दक्षः । तद्गतचिन्ताविष्टः निरन्तरं तदपि रौद्रम् अपि ॥ अपि पुनः तदपि निरन्तरं रौद्रध्यानं भवेत् । तत् किम् । परविषयहरणशीलः, परेषां विषयाः रत्नसुवर्णरूप्यादिधनधान्य कुशल होना, पापका उपदेश देनेमें चतुर होना, नास्तिक धर्म में पण्डित होना, हिंसासे प्रेम होना, निर्दय पुरुषोंके साथ रहना और स्वभावसे ही क्रूर होना, इन सबको वीतरागी महापुरुषोंने रौद्र कहा है । 'प्राणियोंका घात किस उपायसे होता है ? मारनेमें कौन चतुर है ? किसे जीवघातसे प्रेम है ? कितने दिनोंमें सब प्राणियोंको मारा जा सकता है ? मैं प्राणियोंको मारकर पुष्टि और शान्तिके लिये ब्राह्मण, गुरु और देवताओंकी पूजा करूँगा। इस प्रकार प्राणियोंकी हिंसामें जो आनन्द मनाया जाता है उसे रौद्रध्यान कहा है ।' आकाश, जल और थल में विचरण करनेवाले प्राणियोंके मारने जलाने बांधने, काटने वगैरह का प्रयत्न करना, तथा दांत, नख वगैरहके उखाड़नेमें कौतुक होना यह भी रौद्र ध्यान ही है ।।' सारांश यह है कि जन्तुको पीड़ित किया जाता हुआ देखकर, सुनकर या स्मरण करके जो आनन्द मानता है वह हिंसानन्दि रौद्रध्यानी है। तथा-'ठगविद्याके शास्त्रोंको रचकर और दयाशून्य मार्गको चलाकर तथा लोगोंको व्यसनी बनाकर मैं इच्छित सुख भोगूंगा, असत्य बोलनेमें चतुरताके बलसे मैं लोगोंसे बहुतसा धन, मनोहारिणी कन्याएँ वगैरह ठDगा, मैं असत्यके बलसे राजा अनवा दूसरे पुरुषोंके द्वारा अपने शत्रुओंका घात कराऊँगा, और निर्दोष व्यक्तियोंको दोषी साबित करूँगा, इस प्रकारकी चिन्ताको मुनीन्द्रोंने रौद्रध्यान कहा है । इस प्रकार अनेक असल्य संकल्पोंके करनेसे जो आनन्द होता है उसे पूर्व पुरुषोंने मृषानन्दि रौद्र ध्यान कहा है ॥ ४७५ ॥ अर्थ-जो पुरुष दूसरोंकी विषयसामग्रीको हरनेका स्वभाववाला है, और अपनी विषयसामग्रीकी रक्षा करनेमें चतुर है, तथा निरन्तर ही जिसका चित्त इन दोनों कामोंमें लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है ।। भावार्थ-दूसरोंके रत्न, सोना, चांदी, धन, धान्य, स्त्री, वस्त्राभरण वगैरहको चुरानेमें ही १ लमसग चित्ता। २ स तं वि रुदं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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