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________________ ३६० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४७४कथम् एतस्य मत्सकाशात् विनाशो भविष्यति यास्यतीति चिन्ताप्रबन्धः । कीदृक्षः सन् । विक्षिप्तः अनिष्टसंयोगेन विक्षेपं व्याकुलतां प्राप्तः आकुलव्याकुलमना इति अनिष्टसंयोगामिधानम आर्तध्यानम १ । सो चिय तदेवार्तध्यानं भवेत् । तत किम् । यः इत्यमुना प्रकारेण विकल्पः मनसो वस्तुविषये परिचिन्तनं विकल्पः मेदो वा । इति किम् । मनोहरविषयवियोगे सति, मनोहराः विषयाः इष्टपुत्रमित्रकलत्रभ्रातृधनधान्यसुवर्णरत्नगजतुरङ्गवस्त्रादयः तेषां वियोगे विप्रयोगे तं वियुक्तं पदार्थ कथं प्रापयामि लभे तत्संयोगाय वारंवार स्मरणं विकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध इष्टवियोगाख्यं द्वितीयमार्तध्यानम् २ । संतापेन पीडाचिन्तनेन वातपित्तश्लेष्मोद्धवकुठंदरभगंदरशिरोर्तिजठरपीडावेदनानां संतापेन पीडितेन प्रवृत्तः विकल्प चिन्ताप्रबन्धः, कथं वेदनाया विनाशो भविष्यतीति पुनःपुनश्चिन्तनम् अङ्गविक्षेपाक्रन्दकरणादिपीडाचिन्तनं तृतीयमातध्यानम् ३ । चकारात् निदानं दृष्टश्रुतानुभवेहपरलोकभोगाकांक्षाभिलाषः निदानं चतुर्थमार्तध्यानं स्यात् ४ । तथा हि ज्ञानार्णवे तत्त्वार्थादौ च "अनिष्टयोगजन्माद्य तथेष्टार्थात्ययात्परम् । रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमङ्गिनाम् ॥" अनिष्टयोगम् , तद्यथा । "ज्वलनवनविषास्त्रव्यालशार्दूलदैत्यैः स्थलजलबिलसत्त्वैर्दु नारातिभूपैः । खजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यमात तदेतत् ॥” “राजैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगात्यये, चित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा । संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं, तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलङ्कास्पदम् ॥" "कासश्वासभगन्दरोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरूप्रकोपजनित रोगैः शरीरान्तकैः । स्याच्छश्वत्प्रबलैः प्रतिक्षणभवैयद्याकुलत्वं नृणां, तद्रोगार्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुरदुःखाकरम् ॥" "भोगा भोगीन्द्रसेव्यास्त्रिभुवनजयिनी रूपसाम्राज्यलक्ष्मी, राज्यं क्षीणारिचक्र विजितसुरवधूलास्यलीला युवत्यः । अन्यच्चेदं विभूतं कथमिह भवतीत्यादिचिन्तासुभाजा, यत्तद्भोगार्तमुक्तं परमगणधरैर्जन्मसंतानसूत्रम् ॥" "पुण्यानुष्ठानजातैरमिलषति पदं यजिनेन्द्रामराणां, यद्वा तैरेव वाञ्छत्यहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । पूजासत्कारलाभप्रभृतिकमथवा जायते यद्विकल्पैः, स्यादात तन्निदानप्रभवमिह नृणां दुःख आये 'च' शब्दसे चौथे आर्तध्यानको ले लिया है। ज्ञानार्णव आदिमें इन चारों आर्तध्यानोंका विस्तारसे वर्णन किया है जो इस प्रकार है-अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, रोगका प्रकोप और निदानके निमित्तसे आर्तध्यान चार प्रकारका होता है। अपने धन आप्त और शरीरको हानि पहुँचनेवाले अग्नि, विष, अस्त्र, सर्प, सिंह, दैत्य, दुर्जन, शत्रु, राजा आदि अनिष्ट वस्तुओंके संयोगसे जो आर्तध्यान होता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है । चित्तको प्यारे लगनेवाले राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, बन्धु, मित्र, सौभाग्य और भोगोंका वियोग हो जानेपर शोक और मोहके वशीभूत होकर जो रात दिन खेद किया जाता है वह इष्ट वियोगज आर्तध्यान है । शरीरके लिये यमराजके समान और पित्त, कफ़ और वायुके प्रकोपसे उत्पन्न हुए खांसी, श्वास, भगंदर, जलोदर, कुष्ठ, अतीसार, ज्वर, आदि भयानक रोगोंसे मनुष्योंका प्रतिक्षण व्याकुल रहना रोगज आर्तध्यान है । यह दुर्वार दुःखकी खान है । भोगी जनोंके द्वारा सेवनेयोग्य भोग, तीनों लोकोंको जीतनेवाली रूपसम्पदा, शत्रुओंसे रहित निष्कंटक राज्य, देवांगनाओंके विलासको जीतनेवाली युवतियाँ, अन्य भी जो संसारकी विभूति है वह मुझे कैसे मिले, इस प्रकारकी चिन्ता करनेवालोंके भोगज आर्तध्यान होता है । गणधर देवने इस आर्तध्यानको जन्म परम्पराका कारण कहा है । पुण्यकर्मको करके उससे देव देवेन्द्र आदि पदकी इच्छा करना, अथवा पूजा, सत्कार, धनलाभ आदिकी कामना करना अथवा अत्यन्त क्रोधित होकर अपना अहित करनेवालोंके कुलके विनाशकी इच्छा करना निदान नामका आर्तध्यान है । वह आर्तध्यान मनुष्योंके लिये दुःखोंका घर है । इस आर्तध्यानका फल अनन्त दुःखोंसे भरी हुई तिर्यश्चगतिकी प्राप्ति ही है । यह आर्त ध्यान कृष्णनील आदि अशुभ लेश्याके प्रतापसे होता है । और पापरूपी दावानलके लिये ईंधनके समान है । मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि इन चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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