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________________ -४७४] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३५९ केवलिनः स्यात् । धर्मध्यानं अप्रमत्तसंयतस्य साक्षाद्भवति । अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयतानां तु गौणवृत्त्या धर्म ध्यानं वेदितव्यमिति । 'परे मोक्षहेतू' परे धर्मशक्ले द्वे ध्याने मोक्षहेतू मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य हेतू कारणे भवतः । तत्र धर्म्य ध्यानं पारंपर्येग मोक्षस्य कारणम्, शुक्रध्यानं तु साक्षात्तद्भवे मोक्षकारणमुपशमश्रेण्यपेक्षया तु तृतीये भवे मोक्षदायकम् । भातरौद्रे द्वे ध्याने संसारहेतुकारणे भवतः इति ॥ ४७२॥ अथ गाथाद्वयेन चतुर्विधमार्तध्यानं विवृणोति दुक्खयर-विसय-जोए केम इमं चयदि' इदि विचिंतंतो। चेदि जो विक्खित्तो अट्ट-ज्झाणं' हवे तस्स ॥४७३ ॥ मणहर-विसय-विओगे कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सो च्चिय अर्से हवे झाणं ॥ ४७४॥ [छाया-दुःखकरविषययोगे कथम् इमं त्यजति इति विचिन्तयन् । चेष्टते यः विक्षिप्तः आर्तध्यानं भवेत् तस्य । मनोहरविषयवियोगे कथं तत् प्राप्नोमि इति विकल्पः यः। संतापेन प्रवृत्तः तत् एव आतं भवेत् ध्यानम् ॥] तस्य जीवस्य आर्तध्यानं भवेत् । तस्य कस्य । यो जीवः इति चिन्तयेत् ध्यायेत् तिष्ठति आस्ते । इति किम् । दुःखकरविषययोगे दुःखकराः आत्मनः प्रदेशेषु दुःखोत्पादका विषयाः चेतनाचेतनाः । चेतनविषयाः कुत्सितरूपदुर्गन्धशरीरदर्भािग्यदुष्टकलत्रदुष्टपुत्रमित्रभृत्यशत्रुसादिकाः । अचेतनविषयाः परप्रयुक्तशस्त्रविषकण्ट कादयः । तेषाम् अनिष्टानां संयोगे मेलापके सति इममनिष्टपदार्थ केन [ केम ] कथं केन प्रकारेण त्यजामि मुञ्चामि, इत्यपरध्यानरहितत्वेन पुनःपुनश्चिन्तनं प्रवर्तनम् । केवलीके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान होता है और अयोग केवलीके व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामक चौथा शुक्लध्यान होता है ॥ शुक्लध्यान मोक्षका साक्षात् कारण है । किन्तु उपशम श्रेणि अपेक्षामें तीसरे भवमें मोक्ष होता है; क्यों कि उपशम श्रेणिमें जिस जीवका मरण हो जाता है वह देवगति प्राप्त करके और पुनः मनुष्य होकर शुक्ल ध्यानके बलसे मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ४७२ ।। आगे आर्त ध्यानका वर्णन करते हैं। अर्थ-दुःखकारी विषयका संयोग होनेपर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है, उसके आर्तध्यान होता है। तथा मनोहर विषयका वियोग होनेपर 'कैसे इसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृत्ति करता है यह भी आर्तध्यान है ॥ भावार्थ-पहले कहा है कि किसी प्रकारकी पीड़ासे दुःखी होकर जो संक्लेश परिणामोंसे चिन्तन किया जाता है वह आर्तध्यान है । यहाँ उसके दो प्रकार बतलाये हैं । दुःख देनेवाले स्त्री, पुत्र, मित्र, नौकर, शत्रु, दुर्भाग्य आदि अनिष्ट पदार्थोका संयोग मिल जानेपर 'प्राप्त अनिष्ट पदार्थसे किस प्रकार मेरा पीछा छूटे' इस प्रकार अन्य सब बातोंका ध्यान छोड़कर वारंवार उसीकी चिन्तामें मग्न रहना अनिष्ट संयोग नामका आर्तभ्यान है । तथा अपनेको प्रिय लगनेवाले पुत्र, मित्र, स्त्री, भाई, धन, धान्य, सोना, रत्न, हाथी, घोड़ा, वस्त्र आदि इष्ट वस्तुओंका वियोग हो जानेपर 'इस वियुक्त हुए पदार्थको कैसे प्राप्त करूँ' इस प्रकार उसके संयोगके लिये वारंवार स्मरण करना इष्ट वियोग नामका दूसरा आर्तध्यान हैं । अन्य ग्रन्थों में आर्तध्यानके चार प्रकार बतलाये हैं । इस लिये संस्कृत टीकाकारने अपनी टीकामें भी चारों आर्तध्यानोंका वर्णन किया है। उन्होंने उक्त गाथा नं. ४७४ के उत्तरार्ध 'संतावेण पयत्ते'को अलग करके तीसरे आर्तध्यानका वर्णन किया है, और उसमें १ [चयमि]। २ बचिट्ठदि। ३ म अट्टं झाणं। ४ लसग वियोगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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