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________________ ३१२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४१२ रूपं स्वर्गादिसुखजनकम् अमिलषति वाञ्छति ईहते । कया । विषयसौख्य तृष्णया पञ्चेन्द्रियाणां सप्तविंशतिविषयसुखवाञ्छया पुण्यं वाञ्छति । स कीदृग्विधः सन् । सकषायः कषायैः सह वर्तते इति सकषायः क्रोधमानमायालोभरागद्वेषादिपरिणामसहितः । तस्य पुंसः विशुद्धिः विशुद्धिता निर्मलता चित्तविशुद्धिता कर्मणामुपशान्ततादिर्वा अतिशयेन दूरतरा भवति । भवतु नाम विशुद्धेः दूरत्वं, का नो हानिः इति न वाच्यम् । यतः पुण्यानि शुभकर्माणि देवशास्त्रगुरुभक्तिकानि दानपूजाव्रतशीलयुक्तानि विशुद्धिमूलानि विशुद्धिकारणानि, विशुद्धेरभावात्तेषामभावः ॥ ४११॥ पुण्णासाऍ ण पुणं जदो' णिरीहस्स पुण्ण-संपत्ती । इय जाणिऊण जइणो' पुण्णे वि में आयरं कुणह ॥ ४१२ ॥ [ छाया - पुण्याशया न पुण्यं यतः निरीहस्य पुण्यसंप्राप्तिः । इति ज्ञात्वा यतयः पुण्ये अपि मा आदरं कुरुत ॥ ] भो यतयः भो साधवः मुनयः पुण्येऽपि न केवलं पापे, आदरं प्रशस्तकर्मोपार्जने उद्यमं मा कुरुध्वं यूयं मा कुरुत । किं कृत्वा । इति पूर्वोक्तं पुण्यफलं ज्ञात्वा मत्वा । इति किम् । निरीहस्य इह परलोकसौख्यवाच्छार हितस्य दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानरहितस्य लोभाकांक्षारहितस्य पुंसः पुण्यसंपत्तिः प्रशस्तकर्मणां प्राप्तिर्भवति, सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्रकर्मणा बन्धः स्यात् । यतः पुण्याशया पुण्यवाञ्छया शुभकर्मणामीहया पुण्यं न भवति, निदानादीनां वाञ्छाऽशुभकर्मोत्पादनवात् ॥ ४१२ ॥ पुणं बंधदि जीवो मंद-कसाएहि परिणदो संतो । तम्हा मंद - कसाया हेऊँ पुण्णस्स ण हि वंछा ॥ ४१३ ॥ [ छाया - पुण्यं बध्नाति जीवः मन्दकषायैः परिणतः सन् । तस्मात् मन्दकषायाः हेतवः पुण्यस्य न हि वाञ्छा ॥ ] जीवः आत्मा यतः कारणात् बध्नाति बन्धनं विदधाति । किं तत् । पुण्यं शुभं कर्म प्रशस्त प्रकृतिसमूहं 'सद्वेद्यशुभायुर्नाम - Jain Education International अतः चित्तकी विशुद्धि उससे सैकड़ों कोस दूर है । शायद कोई कहे कि यदि उससे विशुद्धि दूर है तो रही आओ, हानि क्या है ? इसका उत्तर यह है कि देव शास्त्र और गुरुकी भक्ति, दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ कर्मका मूल कारण चित्तकी विशुद्धि है । चित्तकी विशुद्धि हुए बिना पुण्यकर्मका संचय नहीं होता ॥ ४११ ॥ अर्थ - तथा पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह ( इच्छा रहित ) व्यक्ति को ही पुण्यकी प्राप्ति होती है । अतः ऐसा जानकर हे यतीश्वरों, पुण्यमें भी आदर भाव मत रक्खो ॥ ४९२ ॥ अर्थ - मन्दकषायरूप परिणत हुआ जीव ही पुण्यका बन्ध करता । अतः पुण्यबन्ध का कारण मन्द कषाय है, इच्छा नहीं || भावार्थ - इच्छा मोहकी पर्याय है अतः वह तीव्र कषाय रूप ही है । फिर इच्छा करनेसे ही कोई वस्तु नहीं मिल जाती । लोकमें भी यह बात प्रसिद्ध है कि इच्छा करनेसे कुछ नहीं मिलता और बिना इच्छाके बहुत कुछ मिल जाता है । अतः इच्छा तो पुण्यकी छोड़ मोक्षकी भी निषिद्ध ही है । यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि पुराणोंमें पुण्यका ही व्याख्यान किया है और पुण्य करनेकी प्रेरणा भी की है। पुण्य कर्मसे ही मनुष्यपर्याय, अच्छा कुल, अच्छी जाति, सत्संगति आदि मोक्षके साधन मिलते हैं । तब ऐसे पुण्यकी इच्छा करना बुरा क्यों है ? इसका समाधान यह है कि भोगोंकी लालसासे पुण्यकी इच्छा करना बुरा है । जो भोगोंकी तृष्णासे पुण्य करता है, प्रथम तो उसके सातिशय पुण्यबन्ध ही नहीं होता । दूसरे, थोड़ा बहुत पुण्य बन्ध करके उसके फल स्वरूप जब उसे भोगोंकी प्राप्ति होती है तो वह अति अनुरागपूर्वक 1 १ ब पुण्णासए ( ? ) । २ म होदि ३ ब मुणिणो । ४ मण । ५ ब कुणइ । ६ ग जीउं ( ओ ? ) । ७म हेउं 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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