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________________ ३०० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३९९ न्तरसमपादाभ्यां स्थित्वा परीक्ष्य भुञ्जानस्य निभृतस्य तद्गतदोषाभावः इत्येषणासमितिः ३ । धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां पुस्तकादीनां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य मयूरपिच्छेन प्रमृज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणसमितिः ४ । स्थावराणां जङ्गमानां च जीवानामविरोधेन अङ्गमलमूत्रादिनिर्हरणं शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिः ५ । एवमीर्या - समित्यादिषु वर्तमानस्य मुनेः तत्प्रतिपालनार्थम् एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहारः प्राणिसंयमः, इन्द्रियादिष्वर्थेषु रागपरित्यागः इन्द्रियसंयमः । स चापहृतसंयमस्त्रिविधः, उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति । तत्र प्रासुकवसतिभोजनादिमात्र बाह्य साधनस्य स्वाधीनज्ञानादिकस्य मुनेः जन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य दूरीकृत्य जीवान् पालयतः उत्कृष्टसंयमो भवति १ । मृदुना मयूर - पिच्छेन प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो मुनेः मध्यमः संयमः २ । उपकरणान्तरेण प्रमृज्य जीवान् परिहरतो जघन्यः संयमः ३ । तथा चोक्तं यत्नपरस्य समितियुक्तस्य हिंसादिपापबन्धो न भवति । अयत्नपरस्य पापबन्धो भवति । "मरदु व जीवदु जीवो अयदायारस्स णिच्छिया हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसा मित्तेण समिदस्स ॥ जदं चरे जदं चिट्ठे जदं आसे जदं सये । जदं भुंजेज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ॥" तस्यापहृतसंयमस्य प्रतिपालनार्थं शुद्ध्यष्टकोपदेशः । तद्यथा अष्टौ शुद्धयः । भावशुद्धिः १, कायशुद्धिः २, विनयशुद्धिः ३ ईर्यापथशुद्धिः ४, भिक्षाशुद्धि: ५, प्रतिष्ठापनाशुद्धिः ६, शयनासनशुद्धिः ७, वाक्यशुद्धिः ८ चेति । तत्र भावशुद्धिः कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्या हितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता, तस्यां सत्याम्, आचारः प्रकाशते परिशुद्ध भित्तिगतचित्रकर्मवत् १ | कायशुद्धिः निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयत्नवृत्तिः प्रशममूर्तिमिव प्रदर्शयन्ती, तस्यां सत्यां न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते, नाप्यन्यतस्तस्य २ । विनयशुद्धिः अर्हदादिपरमगुरुषु यथा अर्हत्पूजाप्रवणा ज्ञानादिषु यथाविधिभक्तियुक्ता गुरोः सर्वत्रानु सोना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक बोलना चाहिये, ऐसा करने से पाप नहीं लगता' || पहले जो अपहृत संयम बतलाया है उसके पालनेके लिये आठ शुद्धियाँ बतलाई हैं । वे आठ शुद्धियाँ इस प्रकार हैं-भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनका स्वरूप - कर्मोंके क्षयोपशमसे रागादि विकारोंसे रहित परिणामोंमें जो निर्मलता होती है वह भावशुद्धि है । जैसे स्वच्छ दीवारपर की गई चित्रकारी शोभित होती है वैसे ही भावशुद्धिके होनेपर आचार शोभित होता है । जैसे तुरन्तके जन्मे हुए बालक के शरीरपर न कोई वस्त्र होता है, न कोई आभूषण होता है, न उसके बाल वगैरह ही संवारे हुए होते हैं, और न उसके अंगमें किसी तरहका कोई विकार ही उत्पन्न होता है, वैसे ही शरीर पर किसी वस्त्राभूषणका न होना, बाल वगैरहका इत्र तेल वगैरह से संस्कारित न होना और न शरीरमें काम विकारका ही होना कायशुद्धि है । ऐसी प्रशान्त मूर्तिको देखकर न तो उससे किसीको भय लगता है और न किसीसे उसे भय रहता है । अर्हन्त आदि परम गुरुओंमें, उनकी पूजा वगैरह में विधिपूर्वक भक्ति होना, सदा गुरुके अनुकूल आचरण करना, प्रश्न स्वाध्याय कथा वार्ता वगैरह में समय बिचारनेमें कुशल होना, देश काल और भावको समझनेमें चतुर होना तथा आचार्यकी अनुमतिके अनुसार चलना विनयशुद्धि है । विनय ही सब संपदाओंका मूल है, वही पुरुषका भूषण है और वही संसाररूपी समुद्रको पार करनेके लिये नौका है । अनेक प्रकारके जीवोंके उत्पत्तिस्थानोंका ज्ञान होनेसे जन्तुओंको किसी प्रकारकी पीड़ा न देते हुए, सूर्य के प्रकाशसे प्रकाशित भूमिको अपनी आंखोंसे देखकर गमन करना, न अति शीघ्र चलना, न अति विलम्बपूर्वक चलना, न ठुमक ठुमक कर चलना, तथा चलते हुए इधर उधर नहीं देखना, इस प्रकारके गमन करनेको ईर्यापथ शुद्धि कहते हैं । जैसे न्याय मार्गसे चलनेपर ऐश्वर्य स्थायी रहता है वैसे ही ईर्यापथ शुद्धि में संयम की प्रतिष्ठा है । भिक्षा के लिये जानेसे 1 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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