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________________ -३९९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९९ नासूयाप्रियसंमेदाल्पसारशङ्कितसंभ्रान्तकषायपरिहासायुक्तासभ्यशपननिष्ठरधर्मविरोधिदेशकालविरोध्यतिसंस्तवादिवाग्दोषविरहिताभिधानम् २ । अनगारस्य मोक्षकप्रयोजनस्य प्राणिदयातत्परस्य कायस्थित्यर्थ प्राणयात्रानिमित्तं तपोहणार्थ च चर्या निमित्तं पर्यटतः शीलगुणसंयमादिकं संरक्षतः संसारशरीरभोगनिर्वेदत्रयं भावयतो दृष्टवस्तुयाथात्म्यस्वरूपं चिन्तयतो देशकालसामर्थ्यादिविशिष्टम् अगर्हितम् आहारं नवकोटिपरिशुद्धमेषणासमितिः । षडीवनिकायस्य उपद्रव उपद्रवणम् , अङ्गच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणं, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणम् आरम्भः, एवं उपद्रवणविद्रावणपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्नं खेन कृतं परेण कारितं अनुमतं च आधाकर्म, तत्सेविनो अनशनादितपांसि अभ्रावकाशादियोगा वीरासनादियोगविशेषाश्च भिन्नभाजनभरितामृतवत् प्रक्षरन्ति ततस्तदभक्ष्यमिव परिहरतो भिक्षोः परकृतप्रशस्तप्रासुकाहारग्रहणेऽपि षट्चत्वारिंशद्दोषा भवन्ति । तद्यथा। षोडशविध उद्गमदोषः १६, षोडशविध उत्पादनदोषः १६, दशविध एषणादोषः १०, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाश्चत्वारः ४, एतैर्दोषैः परिवर्जितमाहारग्रहणमेषणासमितिरिति । नैःसंगिकी चर्यामातिठमानस्य पात्रग्रहणे सति तत्संरक्षणादिकृतो दोषः प्रसज्यते कपालमन्यद्वा भाजनमादाय पर्यटतो भिक्षोर्दैन्यम् आसज्यते । गृहिजनानीतमपि भाजनं न सर्वत्र सुलभ, तत्प्रक्षालनादिविधौ च दुःपरिहारः पापलेपः । स्वभाजनेन देशान्तरं नीत्वा भोजने च आशानुबन्धः स्यात् । खपूर्वविशिष्टभाजनाधिकगुणासंभवाच्च येन केनचित् भुञ्जानस्य दैन्यं स्यात् । ततो निस्संगस्य निःपरिग्रहस्य भिक्षोः खकरपुटभाजनाच्च नान्यद्विशिष्टमस्ति, तस्मात् स्वायत्तेन पाणिपुटेन निराबाधे देशे निरालम्बचतुरङ्गुला में तत्पर मुनि शरीरको बनाये रखने के लिये, और तपकी वृद्धिके लिये देश काल और सामर्थ्यके अनुसार जो नव कोटिसे शुद्ध निर्दोष आहार ग्रहण करता है उसे एषणा समिति कहते हैं। दूसरेके द्वारा दिये गये प्रासुक आहारको ही श्रावकके घर जाकर मुनि ग्रहण करता है। उसमें भी ४६ दोष होते हैं, जिनमें १६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० एषणा दोष और चार संयोजन, प्रमाणातिरेक,अंगार और धूम दोष होते हैं। इन छियालीस दोषोंको टालकर अपने हस्तपुटमें आहार ग्रहण करना एषणा समिति है । मुनि पात्रमें भोजन नहीं करते । उनकी सब चर्या स्वाभाविक होती है । वे यदि अपने पास भोजनके लिये बरतन रखें तो उसकी रक्षाकी चिन्ता करनी पड़े और बरतन लेकर भोजनके लिये जानेसे दीनता प्रकट होती है । तथा यदि बरतनमें भोजन मांगकर कहीं ले जाकर खायें तो तृष्णा बढ़ती है । गृहस्थोंके घरपर बरतन मिल सकता है, किन्तु उसको मांजने धोनेका आरम्भ करना पड़ता है । इसके सिवाय यदि किसी गृहस्थने टूटा फूटा बरतन खानेके लिये दिया तो उसमें भोजन करनेसे दीनता प्रकट होती है । अतः निष्परिग्रही साधुके लिये अपने हस्तपुटसे बढ़िया दूसरा पात्र नहीं है । इस लिये शान्त मकानमें बिना किसी सहारेके खड़े होकर अपने खाधीन पाणिपात्रमें देख भाल कर भोजन करनेवाले मुनिको उक्त दोष नहीं लगते । यह एषणा समिति है । ज्ञान और संयमके साधन पुस्तक कमंडलु वगैरहको देखकर तथा पीछीसे साफ करके रखना तथा उठाना आदान निक्षेपण समिति है । स्थावर तथा त्रस जीवोंकी विराधना न हो इस प्रकारसे मल मूत्रादि करना उत्सर्ग समिति है । इन समितियोंका पालन करते हुए एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंकी रक्षा होनेसे प्राणिसंयम होता है तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें राग द्वेष न करनेसे इन्द्रियसंयम होता है । कहा भी है-समितियोंका पालन करनेसे पापबन्ध नहीं होता और असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करनेसे पापबन्ध होता है । और भी कहा है-जीव मरे या जिये, जो अयत्नाचारी है उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है । और जो सावधानता पूर्वक देख भाल कर प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता । और भी कहा है-'मुनिको यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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