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________________ -३९७] १२. धर्मानुप्रेक्षा मनसा व कुटिलत्वं नाचरति न विदधाति, सरलत्वं मनसा चिन्तयतीत्यर्थः । वक्र म करोति, मायारूप कुरिलवं छलं छम कायेन न विदधाति । तथा वर्क कुटिलवचनं वचनेन जिया न अल्पति न वक्ति। 'मनोवचनकायकर्मणाम् अकौटिल्यमार्जवमभिधीयते' इति वचनात् । तथा निजदोषं स्वयंकृतापराधम् अतिचारादिदोषकृतं नैव गोपायति न चाच्छादयति । खकृतदोषं गर्हानिन्दादिकं करोति प्रायश्चितं विदधाति च । योगस्य हि कायवाङ्मनोलक्षणस्य अवक्रता आर्जवमित्युच्यते। ऋजुहृदयमधिवसन्ति गुणा मायाभावं नाश्रयन्ति । मायाविनो न विश्वसिति लोकः । मायातियग्योनिश्चति गर्हिता च गतिर्भवतीति ॥ ३९६ ॥ शौचत्वमाह सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह-मल-जं । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे' विमलं ॥ ३९७ ॥ [छाया-समसंतोषजलेन यः धावति तीव्रलोभमलपुञ्जम् । भोजनगृद्धिविहीनः तस्य शौचं भवेत् विमलम् ॥] तस्य मुनेः सुचित्तम् उत्तममानसं शौचत्वं पवित्रं वा विमलं लोभादिमलरहितं शौचपरिणतचित्तमित्यर्थः भवति। तस्य कस्य । यः मुनिः तृष्णालोभमलपुझं धोवदि प्रक्षालयति । तृष्णा परपदार्थाभिलाषः, लोभः परवस्तुग्रहणाकांक्षा, तृष्णा च लोभश्च तृष्णालोभौ तावेवमल किल्बिर्ष तस्य पुञ्जः समूहः तं तृष्णालोभमलपुलं, परपदार्थामिलाषपरवस्तुग्रहणकांक्षारूपमलराशि धारी होता है । क्यों कि मन, वचन और कायकी सरलताका नाम आर्जव है । तथा जो अपने अपराधको नहीं छिपाता, व्रतोंमें जो अतिचार लगते हैं उनके लिये अपनी निन्दा करता है और प्रायश्चित्तके द्वारा उनकी शुद्धि करता है वह भी आर्जव धर्मका धारी है। वास्तवमें सरलता ही गुणोंकी खान है । जो मायावी होता है उसका कोई विश्वास नहीं करता तथा वह मरकर तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेता है ॥ ३९६ ॥ आगे शौच धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो समभाव और सन्तोष रूपी जलसे तृष्णा और लोभ रूपी मलके समूहको धोता है तथा भोजनकी गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है ॥ भावार्थ-तृण, रत्न, सोना, शत्रु, मित्र आदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओंमें राग और द्वेष न होनेको साम्यभाव कहते है और संतोष तो प्रसिद्ध ही है। पदार्थोंकी अभिलाषा रूप तृष्णा और प्राप्त पदार्थोंकी लिप्सा रूप लोभ ये सब मानसिक मल है गन्दगी है । इस गन्दगीको जो समता और सन्तोष रूपी जलसे धोडालता है अर्थात् समताभाव और सन्तोषको अपनाकर तृष्णा और लोभको अपने अन्दरसे निकाल फेंकता है, वह शौच धर्मका पालक है। तथा मुनि कंचन और कामिनी का त्याग तो पहले ही कर देता है, शरीरकी स्थितिके लिये केवल भोजन ग्रहण करता है। अतः भोजनकी तीव्र लालसा नहीं होना भी शौच धर्मका लक्षण है। असलमें लोभ कषायके त्यागका नाम शौच है । लोभके चार प्रकार हैं-जीवनका लोभ, नीरोगताका लोभ, इन्द्रियका लोभ, और उपभोगका लोभ । इनमेंसे भी प्रत्येकके दो भेद हैं-अपने जीवनका लोभ, अपने पुत्रादिकके जीवनका लोभ, अपनी नीरोगताका लोभ, अपने पुत्रादिकके नीरोग रहनेका लोभ, अपनी इन्द्रियों का लोभ, पराई इन्द्रियोंका लोभ, अपने उपभोगका लोभ और परके उपभोगका लोभ। इनके त्याग का नाम शौच धर्म है। शौच धर्मसे युक्त मनुष्यका इसी लोकमें सन्मान होता है, उसमें दानादि अनेक गुण पाये जाते हैं इसके विपरीत लोभी मनुष्यके हृदयमें कोई भी सद्गुण नहीं ठहरता, १ग तिठ (४१) [-तृष्णा] । २ ल म स ग तस्स सुचित्त हवे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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