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________________ २७२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३७१ मेरोरपि महन्छरीरं कुरुते २, लघिमा वायोरपि लघुता ३, गरिमा वज्रशैलादपि गुरुतरा ४, भूमौ स्थित्वा करेण शिखरादिस्पर्शनं प्राप्तिः ५, जले भूमाविव गमनं भूमौ जले इव मजनोन्मजनं प्राकाम्यं जातिक्रियागुणद्रव्यसैन्यादिकरणं वा प्राकाम्यम् ६, त्रिभुवनप्रभुत्वम् ईशत्वम् ७, अदिमध्ये वियतीव गमनम् अप्रतीघातं अदृश्यरूपता अन्तर्धानम् अनेकरूपकरणं मूर्तामूर्ताकारकरण वा कामिरूपत्वम् ८ । अणिना १ महिमा २ लघिमा ३ गरिमा ४ न्तानं ५ कामरूपित्वं ६ प्राप्तिप्राकाम्यवशित्वेशित्वाप्रतिहतत्वमिति विक्रियिकाः, इत्याधनेकर्द्धिसंयुक्तम ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायां भ० श्रीशुभचन्द्रकृतायां टीकायां द्वादशवतव्याख्या समाप्ता ॥ ३७० ॥ अथ सामायिकप्रतिमां गाथाद्वयेन व्यनक्ति जो कुणदि काउसगं बारस-आवत-संजदो धीरो। णमण-दुर्ग पि कुणंतो' चदु-प्पणामो पसण्णप्पा ॥ ३७१ ॥ चिंतंतो ससरूवं जिण-बिंब अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्म-विवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥ ३७२ ॥ [छाया-यः करोति कायोत्सर्ग द्वादशआवर्तसंयतः धीरः । नमनद्विकम् अपि कुर्वन् चतुःप्रणामः प्रसन्नात्मा ॥ चिन्तयन् स्वस्वरूपं जिनबिम्बम् अथवा अक्षरं परमम् । ध्यायति कर्मविपाकं तस्य व्रतं भवति सामाधिकम् ॥ ] तस्य एकभी व्रतका निरतिचार पालन करे तो उसे इन्द्रपद मिलना कोई दुर्लभ नहीं । अर्थात् वह मरकर कल्पवासी देवोंका स्वामी होता है जो अणिमा आदि अनेक ऋद्धियोंका धारी होता है । ऋद्धियां इस प्रकार हैं-इतना छोटा शरीर बना सकना कि मृणालके एक छिद्रमें चक्रवर्तिकी विभूति रच डाले इसे अणिमा ऋद्धि कहते हैं । सुमेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना महिमा ऋद्धि है । वायुसे भी हल्का शरीर बना लेना लघिमा ऋद्धि है । पहाड़से भी भारी शरीर बना लेना गरिमा ऋद्धि है । भूमिपर बैठकर अंगुलिसे सूर्य चंद्रमा वगैरहको छू लेना प्राप्ति ऋद्धि है । जलमें भूमिकी तरह गमन करना और भूमिमें जलकी तरह डुबकी लगाना प्राकाम्य ऋद्धि है। तीनों लोकोंका खामीपना ईशित्व ऋद्धि है। आकाशकी तरह बिना रुके पहाड़मेंसे गमनागमन करना, अदृश्य हो जाना अथवा अनेक प्रकारका रूप बनाना कामरूपित्व ऋद्धि है । इस तरह व्रत प्रतिमाका वर्णन करते हुए बारह व्रतोंका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ३७० ॥ अब दो गाथाओसे सामायिक प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो धीर श्रावक बारह आवर्तसहित चार प्रणाम और दो नमस्कारोंको करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक कायोत्सर्ग करता है । और अपने खरूपका, अथवा जिनबिम्बका, अथवा परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका, अथवा कर्मविपाकका चिन्तन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है ॥ भावार्थ-सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हुए सामायिकका वर्णन किया गया है । सामायिक प्रतिमामें उसका विशेष स्वरूप बतलाया है । सामायिक करनेवाला धीर वीर होना चाहिये अर्थात् सामायिक करते समय यदि कोई परीषह अथवा उपसर्ग आजाये तो उसे सहनेमें समर्थ होना चाहिये तथा उस समय भी परिणाम निर्मल रखने चाहिये । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और परिग्रह वगैरहकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । प्रथम ही सामायिक दण्डक किया जाता है । उसकी विधि इस प्रकार है-श्रावक पूर्वदिशाकी ओर मुंह करके दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर भूमिमें नमस्कार करे। फिर खड़ा होकर दोनों हाथ नीचे लटकाकर शरीरसे ममत्व छोड़ कायोत्सर्ग करे। १० म स ग कुणह। २ म स आउत्त। ३ ल म स ग करंतो। ४ व साभार (?) यं । सत्तम इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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