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________________ २७० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३६९चाराः पञ्च । 'आनयन १ प्रेष्यप्रयोगः २ शब्द ३ रूपानुपात ४ पुद्गलक्षेपाः ५। एते वर्जनीया इति शिक्षाव्रतं चतुर्थ संपूर्णम् । एतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि भवन्ति । मातृपित्रादिवचनवदपत्यानाम् अणुव्रतानां शिक्षाप्रदायकानि अविनाशकारकाणीत्यर्थः ॥ ३६७-६८ ॥ अथ संक्षेपेण सल्लेखनामुल्लिखन्ति बारस-वएहि जुत्तो सल्लिहणं जो कुणेदि उवसंतो। सो सुर-सोक्खं' पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ॥ ३६९॥ [छाया-द्वादशवतैः युक्तः सल्लेखना यः करोति उपशान्तः । स सुरसौख्यं प्राप्य क्रमेण सौख्यं परं लभते ॥] स पूर्वोक्तद्वादशव्रतधारी श्रावकः सुरसौख्यं सुराणामिन्द्रादीनां सौख्यं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तइन्द्रसामानिकादीनां सुखम् अप्सरोविमानज्ञानविक्रियादिसंभवं सातं शर्म प्राप्य भुक्त्वा क्रमेण अनुक्रमेण जघन्येन द्वित्रिभवग्रहणेनोत्कृष्टेन सप्ताष्टभवप्रहणेन वा 'जहण्णेण दोतिण्णिभवगहणेण उक्कडेण सत्तट्ठभवगहणेण' इति वचनात् परं सौख्यं निर्वाणसौख्यं स्वात्मोपलब्धिभवं सम्यक्त्वाष्टगुणोपेतं शाश्वतम् अनुपमम् इन्द्रियातीतं सातं लभते प्राप्नोति । स कः । यः श्रावकः सल्लेखनां मारणान्तिकीं मरणकाले करोति । सत् सम्यग्लेखना कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं तुच्छकरणं सल्लेखना । कायस्य सल्लेखना बाधसालेखना, कषायाणां सल्लेखना आभ्यन्तरा सल्लेखना क्रमेण कायकारणानपानत्यजनं कषायाणां च त्यजनम् । शरीरसल्लेखनां कषायाणा सल्लेखनां च सं सम्यक् यथोकं भगवत्याधुक्तप्रकारेण लेखनं कृषीकरणं करोति। कीदृक्षः सन् । उन्हींको लक्ष्य करके उनका ध्यान आकृष्ट करनेके लिये पत्थर वगैरह फेंकना पुद्गलक्षेप नामका अतिचार है। ये अतिचार देशावकाशिक व्रतीको छोड़ने चाहिये । जैसे माता पिताके वचन बच्चोंको शिक्षादायक होते हैं वैसे ही ये चार शिक्षाव्रत भी अणुव्रतोंका संरक्षण करते हैं ॥ ३६७-३६८॥ आगे संक्षेपसे संलेखनाको कहते हैं । अर्थ-जो श्रावक बारहव्रतों को पालता हुआ अन्त समय उपशम भावसे सल्लेखना करता है, वह स्वर्गके सुख प्राप्त करके क्रमसे उत्कृष्ट सुख प्राप्त करता है ॥ भावार्थ-शरीर और कषायोंके क्षीण करनेको सल्लेखना कहते हैं । शरीरको क्षीण करना बाह्य सल्लेखना है और कषायोंको क्षीण करना अभ्यन्तर सल्लेखना है। यह सल्लेखना मरणकाल आनेपर की जाती है। जब पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका पालक श्रावक यह देखता है कि किसी उपसर्गसे या दुर्भिक्ष पड़नेसे, या बुढापेके कारण अथवा रोगके कारण मृत्यु सुनिश्चित है और उससे बचनेका कोई उपाय नहीं है तब वह अपने जीवन भर पाले हुए धर्मकी रक्षाके लिये तत्पर हो जाता है । और राग, द्वेष, मोह, परिग्रह वगैरहको छोड़कर, शुद्ध मनसे अपने कुटुम्बियों और नौकर चाकरोंसे क्षमा मांगता है तथा उनके अपराधोंके लिये उन्हें क्षमा कर देता है। उसके बाद स्वयं किये हुए, दूसरोंसे कराये हुए और अनुमोदनासे किये हुए अपने जीवन भर के पापोंकी आलोचना बिना छल छिद्रके करता है । उसके बाद मरणपर्यन्तके लिये पूर्ण महाव्रत धारण कर लेता है अर्थात् मुनि हो जाता है और शोक, भय, खेद, स्नेह वगैरह दुर्भावोंको छोड़कर अच्छे अच्छे शास्त्रोंकी चर्चा श्रवणसे अपने मनको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता है। इस तरह कषायोंको क्षीण करके भोजन छोड़ देता है और दूध वगैरह परही रहता है । फिर क्रमसे दूध वगैरहको भी छोड़कर गर्मजल रख लेता है। और जब देखता है कि मृत्यु अत्यन्त निकट है तब गर्म जलको भी छोड़कर उपवास धारण कर लेता है । और मनमें पञ्चनमस्कार मंत्रका चिन्तन १.मग वयेहि। २लमग जो सल्लेहणं (स सल्लेहण) करेदि, ब सलेहणं (१)। ३ ब सुक्ख। ४ब मोक्ख (१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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