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________________ -३६४] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६५ भोयण-बलेण साहू सत्थं 'सेवेदि रत्ति-दिवसं पि । भोयण-दाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होति ॥ ३६४ ॥ [छाया-भोजनदाने दत्ते त्रीणि अपि दानानि भवन्ति दत्तानि । बुभुक्षातृषाभ्यां व्याधयः दिने दिने भवन्ति देहिनाम् ॥ भोजनबलेन साधुः शास्त्रं सेवते रात्रिदिवसमपि। भोजनदाने दत्ते प्राणाः अपि च रक्षिताः भवन्ति ॥] भोजनदानेन अशनपानादिचतुर्विधाहारदाने दत्ते सति त्रीण्यपि दानानि औषधज्ञानाभयवितरणानि दत्तानि भवन्ति । अथाहारदाने दत्ते सति औषधदानं दत्तं कथं स्यादित्यत्र युक्तिं नियुङ्क्ते। देहिनां प्राणिनां दिने दिने दिवसे दिवसे क्षुधातृषाव्याधयो भवन्ति, क्षुत्तोगाः सन्ति तत् क्षुधातृषाव्याधिनिवारणार्थम् आहारदानं दत्तं सत् औषधदानं दत्तं भवेत् । "मरणसमं णत्थि भयं खुहासमा वेयणा णत्थि । वंछसमं णत्थि जरो दारिद्दसमो वइरिओ णत्थि ॥" इति वचनात् । ननु तहानं ज्ञानदानं कथमिति चेदुच्यते । भोजनबलेन आहारस्य शक्त्या माहात्म्याच्च साधुः मुनिः रात्रौ दिवसेऽपि च शास्त्रं सेवते अध्येति शिष्यान् अध्यापयति सदा निरन्तरं ध्यानाध्ययनं करोति कुरुते कारयति च इति हेतोः आहारदानं ज्ञानदानं स्यात् । ननु तदानमभयदानं कथमिति चेदुच्यते । भोजनदाने दत्ते सति पात्रस्य प्राणाः "पंच वि इंदियपाणा मणवचिकायेण तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दह पाणा ॥” इति दशविधप्राणा रक्षिता भवन्ति। पात्राणां प्राणा जीवितव्यं रक्षिताः सन्तीति हेतोरभयदानं दत्तं भवति । तथा चोक्तं च । “देहो पाणा रूवं विजा धम्म तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिण्णं णियमा हवेइ आहारदाणेणं ॥१॥ भुक्खसमा ण हु वाही अण्णसमाणं च ओसहं णत्थि । तम्हा तहाणेण य आरोयत्तं हवे दिण्णं ॥ २॥ आहारमओ देहो आहारेण विणा पडेइणियमेण । तम्हा जेणाहारो दिण्णो देहो हवे तेण ॥३॥ता देहो ता पाणा तारूवं ताम जाण विण्णाणं । जामाहारो पविसइ देहे जीवाण होते हैं । क्यों कि प्राणियों को भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजनके बलसे ही साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजन दान देने पर प्राणोंकी भी रक्षा होती है ।। भावार्थ-चार प्रकारका आहारदान देने पर औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान भी दिये हुए ही समझने चाहिये । अर्थात् आहारदानमें ये तीनों ही दान गर्भित हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है। आहार दान देने पर औषध दान दिया हुआ समझना चाहिये। इसमें युक्ति यह है कि प्राणियोंको प्रतिदिन भूख और प्यास रूपी रोग सताते हैं। अतः भूख और प्यास रूपी रोगको दूर करनेके लिये जो आहार दान दिया जाता है वह एक तरहसे औषध दान ही है। कहा भी है-" मृत्युके समान कोई भय नहीं । भूखके समान कोई कष्ट नहीं । वांछा समान ज्वर नहीं। और दारिद्यके समान कोई वैरी नहीं।" अब प्रश्न यह है कि आहार दान ज्ञान दान कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि भोजन खानेसे शरीरमें जो शक्ति आती है उसकी वजहसे ही मुनि दिन रात शास्त्रकी खाध्याय करता है, शिष्योंको पढ़ाता है तथा निरन्तर ध्यान वगैरहमें लगा रहता है। अतः आहार दान ज्ञानदान भी है। अब प्रश्न होता है कि आहारदान अभयदान कैसे है ? इसका समाधान यह है कि भोजनदान देनेसे पात्रके प्राणोंकी रक्षा होती है इसलिये आहारदान अभयदान भी है। कहा भी है-“आहारदान देनेसे विद्या, धर्म, तप, ज्ञान, मोक्ष सभी नियमसे दिया हुआ समझना चाहिये। भूख के समान व्याधि नहीं और अन्नके समान औषधी नहीं । अतः अन्नदानसे. औषधदान ही दिया हुआ होता है । यह शरीर आहारमय है । आहार न मिलनेसे यह नियमसे टिक नहीं सकता । अतः जिसने आहार दिया उसने शरीर ही दे दिया । शरीर, प्राण, १ म स ग सेवादि रत्तिदिवहं (स सेवंदि?)। २ कार्तिके०३४ ढुति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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