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________________ २५६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३५२सामाइयस्स करणे खेत्तं कालं च आसणं विलओ'। मण-वयण-काय-सुद्धी णायचा हुंति सत्तेव ॥ ३५२ ॥ [छाया-सामायिकस्य करणे क्षेत्रं कालं च आसनं विलयः । मनवचनकायशुद्धिः ज्ञातव्या भवन्ति सप्तैव ॥1 समये आत्मनि भवं सामायिकम् । अथवा सम्यक् एकत्वेन अयनं गमनं समयः, स्वविषयेभ्यो विनिवृत्य कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तनात् । द्रव्यार्थेन आत्मन एकत्वग्यमनमित्यर्थः । समये एव सामायिक समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । अथवा संशब्दः एकत्वे एकीभावे वर्तते, अयनम् अयः सम् एकत्वेन एकीभावेन गमनं परिणमनं समयः। समय एव सामायिक वा, समयः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । देववन्दनायां निःसंक्लेशं सर्वप्राणिसमताचिन्तनं सामायिकमित्यर्थः । सामायिकस्य करणे कर्तव्ये सति सप्तैव सामग्यो ज्ञातव्या ज्ञेया भवन्ति । ताः काः । क्षेत्रं प्रदेशलक्षणा १, कालं पूर्वाह्नमध्याह्नापराह्नकाललक्षणा २, आसनं पद्मासनादिलक्षणा ३, विलयः ध्यानं तन्मयतालक्षणा ४, मनोवचनकायशुद्ध्या आर्तरौद्रध्यान रहिता धर्मध्यानसहिता मनसः शुद्धिः निर्मलतालक्षणा ५, अन्तर्बाह्यजल्पनरहिता वचनस्य शुद्धिः निर्मलता ६, कायस्य शरीरस्य शुद्धिः निर्मलता ७ ॥ ३५२ ॥ अथ ता गाथापञ्चकेन प्रतिपादयति जत्थ ण कलयल-सद्दो' बहु-जण-संघट्टणं ण जत्थत्थि । जत्थ ण दंसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥ ३५३ ॥ [छाया-यत्र न कलकलशब्दः बहुजनसंघट्टनं न यत्रास्ति । यत्र न दंशादिकाः एष प्रशस्तः भवेत् देशः ॥) सामायिकस्य करणे सति एष प्रत्यक्षीभूतः देशः प्रदेशः स्थानकं क्षेत्रम् । एष कः । यत्र प्रदेशे कलकलशब्दः नास्ति, जनाना वाद्याना पश्वादीनां च कोलाहलशब्दो न विद्यते । च पुनः, यत्र प्रदेशे बहुजनसंघट्टन बहुजनानां संघट्टनं संघातः परस्पर मिलनं वा नास्ति, यत्र स्थाने दंशादिकाः दंशमशकवृश्चिककीटकमत्कुणचञ्चपुटसर्पव्याघ्रविटपुरुषस्त्रीनपुंसकपशुमांसरक्तपूयचर्मास्थिमलमूत्रमृतककलेवरादयो न विद्यन्ते स एव प्रदेशः सामायिककरणस्थानं प्रशस्यम् ॥ ३५३ ॥ अतिचार रूपसे सचित्त आदि भक्षणका त्याग करना होता है ॥ ३५१॥ आगे शिक्षावतका व्याख्यान करते हुए सामायिक व्रतकी सामग्री बतलाते हैं । अर्थ-सामायिक करनेके लिये क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जानने योग्य हैं ॥ भावार्थ-समय नाम आत्माका है । आत्मामें जो होती है उसे सामायिक कहते हैं । अथवा भलेप्रकार एक रूपसे गमन करनेको समय कहते हैं । अर्थात् काय वचन और मनके व्यापारसे निवृत्त होकर आत्माका एक रूपसे गमन करना समय है, और समयको ही यानी आत्माकी एक रूपताको सामायिक कहते है, अथवा आत्माको एक रूप करना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । अथवा देववन्दना करते समय संक्लेश रहित चित्तसे सब प्राणियों में समताभाव रखना सामायिक है । सामायिक करनेके लिये सात बातें जान लेना जरूरी हैं । एक तो जहाँ सामायिक की जाये वह स्थान कैसा होना चाहिये । दूसरे सामायिक किस किस समय करनी चाहिये । तीसरे कैसे बैठना चाहिये । चौथे सामायिकमें तन्मय कैसे हुआ जाता है, पाँचवे मनकी निर्मलता, वचनकी निर्मलता और शरीरकी निर्मलता को भी समझ लेना जरूरी है ॥ ३५२ ॥ आगे पाँच गाथाओंसे उक्त सामग्रीको बताते हुए प्रथम ही क्षेत्रको कहते है । अर्थ-जहां कलकल शब्द न हो, बहुत लोगोंकी भीड़भाड़ न हो और डांस मच्छर वगैरह न हों वह क्षेत्र सामायिक करनेके योग्य है ॥ भावार्थ-जहाँ मनुष्योंका, बाजोंका और पशुओंका कोलाहल न हो, तथा शरीरको कष्ट देनेवाले डांस, मच्छर, बिच्छु, सांप, खटमल, शेर, आदि जन्तु न हों, सारांश यह कि चित्तको क्षोभ पैदा करनेके कारण जहां न हों वहाँ सामायिक करनी चाहिये ॥३५३॥ १ खित्तं। २ म विनउ। ३० मसग सई । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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