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________________ -३४९ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा २५३ विष्णुपुराणलिङ्गपुराणाथर्वणयजुः सामऋग्वेदस्मृतीनां श्रवणम् आकर्णनम् । च पुनः भण्डक्रियाप्रतिपादकशास्त्र प्रहसनकुशलवशीकरणशास्त्रं नृपसचिवकोट्टपालप्रमुखनरनारीव्याघ्रगजादिवशीकरणशास्त्रं कुमन्त्रयन्त्र चूर्णैषधिमण्यादिप्रतिपादकशा स्तम्भनमोहनशास्त्रं कामशास्त्रं कामोत्पत्तिप्रतिपादकरागशास्त्रं कुक्कोकनामादिशास्त्रं च तेषां भण्डनवशीकरणकामशास्त्राणां श्रवणं व्याख्यानं कथनं च । तथा परदोषाणां परेषां दोषाणाम् अपवादानां श्रवणं कथनं च, राजस्त्री चौरद्रव्यादिपचविंशतिविकथानां श्रवणं प्रतिपादनं च, तथा रणप्रतिपादकम् इन्द्रजालादिशास्त्रं गृह्यते इति दुःश्रुतिनामानर्थदण्डः पञ्चमः । ५ ॥ ३४८ ॥ अथानर्थदण्डव्याख्यामुपसंहरन्नाह एवं पंच- पयारं अणत्थ- दण्डं दुहावहं णिच्चं । जो परिहरेदि' णाणी गुणवदी' सो हवे बिदिओ ॥ ३४९ ॥ [ छाया एवं पचप्रकारम् अनर्थदण्डं दुःखावहं नित्यम् । यः परिहरति ज्ञानी गुणवती स भवेत् द्वितीयः ॥ ] स पुमान्, द्वितीयः अनर्थदण्डपरित्यागी गुणवती, पञ्चानामनुव्रताना गुणस्य कारकत्वादनुवर्धनत्वात् गुणव्रतानि विद्यन्ते यस्य सगुणवती भवेत् स्यात् । कथंभूतः सन् । ज्ञानी आत्मशरीरमेदज्ञानवान् । स कः । यः परिहरति त्यजति । कम् । अनर्थदण्डम् । कियत्प्रकारम् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अपध्यानपापोपदेशप्रमादचर्याहिंसादानदुःश्रुतिपञ्चप्रकारं पञ्चमेदं परिहरति । कीदृक्षम् । नित्यं सदा निरन्तरं दुःखावहम् अनेकसंसारदुःखोत्पादकम् । तथानर्थदण्डस्य विरतेः पञ्चाविचारान् वशीकरण, काम भोग वगैरहका वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषोंकी चर्चावार्ता सुनना पांचवा अनर्थदण्ड है || भावार्थ - दुश्रुतिका मतलब है बुरी बातोंको सुनना । अतः जिन शास्त्रों में मिथ्याबातोंकी चर्चा हो, अश्लीलता हो, कामभोगका वर्णन हो, स्त्री-पुरुषोंके नग्न चित्र हों, जिनके सुनने और देखनेसे मनमें विकार पैदा हो, कुरुचि उत्पन्न हो, विषयकषायकी पुष्टि होती हो, ऐसे तंत्रशास्त्र, मंत्रशास्त्र, स्तम्भन शास्त्र, मोहनशास्त्र, कामशास्त्र आदिको सुनना, सुनाना, वांचना वगैरह, तथा राजकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि खोटी कथाओंको सुनना, सुनाना, दुश्रुति नामक पांचवा अनर्थदण्ड है । आजकल अखबारोंमें तरह तरहकी दवाओंके, कोकशास्त्रोंके, स्त्री पुरुषके नग्न चित्रोंके विज्ञापन निकलते हैं और अनजान युवक उन्हें पढ़कर चरित्रभ्रष्ट होते हैं । सिनेमाओं में गन्दे मन्दे चित्र दिखलाये जाते और गन्दे गाने सुनाये जाते हैं जिनसे बालक बालिकाएँ और युवक युवतियां पथभ्रष्ट होते जाते हैं । अतः आजीविका के लिये ऐसे साधनोंको अपनाना भी गृहस्थके योग्य नहीं है । धनसंचयके लिये भी योग्य साधन ही ठीक है । समाजको भ्रष्टकरके पैसा कमाना श्रावकका कर्तव्य नहीं है ॥३४८॥ आगे, अनर्थदण्डके कथनका उपसंहार करते हैं । अर्थ - इसप्रकार सदा दुःखदायी पांच प्रकारके अनर्थदण्डौंको जो ज्ञानी श्रावक छोड देता है वह दूसरे गुणव्रतका धारी होता है ॥ भावार्थ- जिनके पालनसे पांचों अणुव्रतोंमें गुणोंकी वृद्धि हो उन्हें गुणव्रत कहते हैं। दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति आदि गुणव्रतोंके पालनसे अहिंसा आदि व्रत पुष्ट और निर्मल होते हैं, इसीसे इन्हें गुणव्रत कहते हैं । ऊपर जो पांच अनर्थदण्ड बतलाये हैं वे सभी दुःखदायी हैं, व्यर्थ पापसंचयके कारण हैं, बुरी आदतें डालनेमें सहायक हैं । अतः जो ज्ञानी पुरुष उनका त्याग कर देता है वह दूसरे गुणव्रतका पालन करता है। इस व्रतके भी पांच अतिचार छोड़ने चाहिये जो इस प्रकार हैंकन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्षिताधिकरण । रागकी उत्कटताके कारण हास्य १ क म स ग परिहरेश । २ ग गुणव्वई, स गुणव्वदं, व गुणव्वदं होदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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