SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३४०] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४७ अपवरकादिवास्तुद्विपदचतुष्पदशयनासनवस्त्रभाण्डादीनां बाह्यदशसंगानां परिमाणं मर्यादा संख्यां करोति विदधाति । किं कृत्वा । पूर्व तेषां संगानाम् उपयोगं ज्ञात्वा कार्यकारित्वं परिज्ञाय परिग्रहाणा संख्यां करोति यः स पञ्चमाणुव्रतधारी स्यात् । तथा चोक्तं च । 'धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि॥' इति । तथा पञ्चातिचारान् वर्जयति पञ्चमाणुव्रतधारी । 'क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः । क्षेत्रं धान्योत्पत्तिस्थानम् , वास्तु गृहहट्टापवरादिकम् । १। हिरण्यं रूप्यताम्रादिघटितद्रम्मव्यवहारप्रवर्तनम् , सुवर्ण कनकम् ।२। धनं गोमहिषीगजवाजिवडवोष्ट्राजादिकम् , धान्यं व्रीह्यादि अष्टादशभेदसुसस्यम् । उक्त च । “गोधूम १ शालि २ यव ३ सर्षप ४ माष ५ मुद्गाः, ६ श्यामाक ७ कड८ तिल ९ कोद्रव १० राजमाषाः ११ । कीनाश १२ नाल १३ मथ वैणव १४ माढकी च १५, सिंबा १६ कुलत्थ १७ चणकादिसुबीजधान्यम् १८॥"३। दासी. चेटी दासः चेटः। ४ । कुप्यं क्षौमकोशेयककर्पासचन्दनादिकम् । ५। चत्वारि द्वे द्वे मिलित्वा पञ्चमं केवलं ज्ञातव्यम् । तेषां क्षेत्रादीनां पञ्चानां प्रमाणानि, तेषां प्रमाणानाम् अतिक्रमाः अतिरेकाः अतीवलोभवशात् प्रमाणातिलङ्घनानि । एते पञ्चातिचाराः परिग्रहपरिमाणव्रतस्य वेदितव्याः । अन्यच्च तदुक्तं च । “अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ॥” इति । अत्र दृष्टान्तकथाः जयकुमारश्मश्रुनवनीतपिन्नाकश्रेष्ठ्यादीनां ज्ञातव्याः। तथा चोक्तं च । “मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नीली जयश्च संप्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ॥ धनश्रीसत्यघोषौ च तापसारक्षकावपि। उपाख्ये वगैरहको कुप्य कहते हैं । इनमें से शुरुके दो दो को लेकर चार तथा शेष एक लेनेसे पाँच होते हैं । अत्यन्त लोभके आवेशमें आकर इनके प्रमाणको बढ़ा लेनेसे परिग्रह परिमाण व्रतके पाँच अतिचार होते हैं । आचार्य समन्तभद्रने रत्नकरंड श्रावकाचारमें परिग्रह परिमाण व्रतके पाँच अतिचार दूसरे बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं-अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ और अतिभारवाहन । जितनी दूरतक बैल वगैरह सुखपूर्वक जा सकते हैं, लोभमें आकर उससे भी अधिक दूर तक उन्हें जोतना अतिवाहन है । यह अनाज वगैरह आगे जाकर बहुत लाभ देगा इस लोभमें आकर बहुत अधिक संग्रह करना अतिसंग्रह नामका अतिचार है । प्रभूतलाभके साथ माल बेच देने पर भी यदि उसके खरीदारको और भी अधिक लाभ हो जाये तो खूब खेद करना अतिलोभ नामका अतिचार है। दूसरों की सम्पत्तिको देखकर आश्चर्य करना-आंखें फाड़ देना, विस्मय नामका अतिचार है । लोभमें आकर अधिक भार लाद देना अतिभार वाहन नामका अतिचार है। इस व्रतमें जयकुमार बहत प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी कथा इस प्रकार है-हस्तिनागपुरमें राजा सोमप्रभ राज्य करता था। उसके पुत्रका नाम जयकुमार था । जयकुमार परिग्रह परिमाण व्रतका धारी था, और अपनी पत्नी सुलोचनामें ही अनुरक्त रहता था। एक बार जयकुमार और सुलोचना कैलास पर्वतपर भरतचक्रवर्तीके द्वारा स्थापित चौवीस जिनालयोंकी वन्दना करनेके लिये गये । उधर एक दिन वर्गमें सौधर्म इन्द्रने जयकुमारके परिग्रह परिमाण व्रतकी प्रशंसा की। उसे सुनकर रतिप्रभ नामका देव जयकुमारकी परीक्षा लेने आया। उसने स्त्रीका रूप बनाया और अन्य चार स्त्रियोंके साथ जयकुमारके समीप जाकर कहा-सुलोचनाके स्वयम्वरके समय जिसने तुम्हारे साथ संग्राम किया था उस विद्याधरोंके खामी नमिकी रानी बहुत सुन्दर और नवयुवती है । वह तुम्हें चाहती है । यदि उसका राज्य और जीवन चाहते हो तो उसे स्वीकार करो । यह सुनकर जयकुमार बोला-'सुन्दरि, मैं परिग्रहपरिमाणका व्रती हूँ। परवस्तु मेरे लिये तुच्छ है । अतः मैं राज्य और स्त्री खीकार नहीं कर सकता' । इसके पश्चात् उस देवने अपनी बात खीकार करानेके लिये जयकुमार पर बहुत उपसर्ग किया। किन्तु वह अपने व्रतसे विचलित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy