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________________ २४६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३३९जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण संतुट्ठो। णिहणदि तिण्हा दुट्ठा मण्णतो' विणस्सरं सर्वं ॥ ३३९॥ जो परिमाणं कुबदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं । उवओगं जाणित्ता अणुबदं पंचमं तस्स ॥ ३४० ॥ [छाया-यः लोभं निहत्य संतोषरसायनेन संतुष्टः। निहन्ति तृष्णा दुष्टा मन्यमानः विनश्वरं सर्वम् ॥ यः परिमाण कुर्वते धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनाम् । उपयोग. ज्ञात्वा अणुव्रतं पञ्चमं तस्य ॥] यः परिग्रहनिवृत्त्यणुव्रतधारी संतोषरसायनेन संतोषामृतरसेन संतुष्टिर्लोभनिवृत्तिः स चामृतरसेन संतुष्टः सन् संतोषवान् । किं कृत्वा । लोभं तृष्णां निहत्य मुक्त्वा इत्यर्थः । पुनः किं करोति । दुष्टाः तृष्णाः निहन्ति अनिष्टाः पापरूपाः दुष्टाः तृष्णाः परस्त्रीपरधनादिवाञ्छादिरूपाः हिनस्ति स्फेटयति । कि कुर्वन् सन् । मन्यमानः जानन् विचारयन् । किं तत् । सर्व देहगेहादिसमस्तं विनश्वरं भङ्गुरं विनाशशीलम् ॥ तस्य पुंसः अणवतं पञ्चमं परिग्रहपरिमाणलक्षणं भवति यः पञ्चमाणुव्रतधारी धनधान्यसुवर्णक्षेत्रादीनां परिमाणम् आदिशब्दात् गृहहट्टाआगे दो गाथाओंसे पाँचवे परिग्रहविरति अणुव्रतका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो लोभ कषायको कम करके, सन्तोषरूप रसायनसे सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णाका घात करता है और अपनी आवश्यकताको जानकर धन धान्य सुवर्ण और क्षेत्र वगैरहका परिमाण करता है उसके पांचवां अणुव्रत होता है || भावार्थ-परिग्रहत्याग अणुव्रतका धारी सबसे प्रथम तो लोभ कषायको घटाता है, लोभकषायको घटाये बिना परिग्रहको त्यागना केवल टोंग है, क्यों कि परिग्रहका मूल लोभ है । लोभसे असन्तोष बढ़ता है, और असन्तोष बढ़कर तृष्णाका रूप ले लेता है । अतः पहले वह लोभको मारता है । लोभके कम होजानेसे सन्तोष पैदा होता है । बस, सन्तोष रूपी अमृतको पीकर वह यह समझने लगता है कि जितना भी परिग्रह है सब विनश्वर है, यह सदा ठहरने वाला नहीं है, और इस ज्ञानके होते ही परस्त्री तथा परधनकी वांछारूपी तृष्णा शान्त हो जाती है । तृष्णाके शान्त होजानेपर वह यह विचार करता है कि उसे अपने और अपने कुटुम्बके लिये किस किस परिग्रहकी कितनी कितनी आवश्यकता है। यह विचारकर वह आवश्यक मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, गाय, बैल, नोकर चाकर, सोना चांदी आदि परिग्रहकी एक मर्यादा बाँध लेता है । कहा भी है-'धन धान्य आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना परिग्रह परिमाण व्रत है। इसका दूसरा नाम इच्छा परिमाण भी है।' इस व्रतके भी पाँच अतिचार छोड़ देने चाहिये क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणातिक्रम, दासीदासप्रमाणातिक्रम और कुप्यप्रमाणातिक्रम । जिसमें अनाज पैदा होता है उसे क्षेत्र (खेत ) कहते हैं । घर, हवेली वगैरहको वास्तु कहते हैं । चांदी ताम्बे वगैरहके बनाये हुए सिक्कोंको, जिनसे देनलेन होता है, हिरण्य कहते हैं । सुवर्ण (सोना) तो प्रसिद्ध ही है । गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊँट वगैरहको धन कहते है । धान्य अनाजको कहते हैं । धान्य अट्ठारह प्रकारका होता है-गेहूं, धान, जौं, सरसों, उड़द, मूंग, श्यामाक, चावल, कंगनी, तिल, कोदो, मसूर, चना, कुलथा, अतसी, अरहर, समाई, राजमाष और नाल । दासी दाससे मतलब नौकर नौकरानीसे है। सूती तथा सिल्कके वस्त्र १५ णिहिणित्ता। २ ब मुण्णति विणरसुरं (१)। ३.व परमाणं। ४ग पाण्ण। ५लम सग अणुव्वयं । ६ व इदि अणुव्वदाणि पंचादि । जह इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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