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________________ २४० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३३४ [छाया-हिंसावचनं न वदति कर्कशवचनम् अपि यः न भाषते । निष्ठरवचनम् अपि तथा न भाषते गुह्यवचनम् अपि ॥ हितमितवचनं भाषते . संतोषकरं तु सर्वजीवानाम् । धर्मप्रकाशनवचनम् अणुव्रती भवति स द्वितीयः ॥] स द्वितीयः अणुव्रती, अणूनि अल्पानि व्रतानि यस्य स अणुव्रती भवति स्यात् । स कः। यः द्वितीयाणुव्रतधारी न वदति न वक्ति न भाषते । किं तत् । हिंसावचनं हिंसाकर जीवहिंसाप्रतिपादकं च वचनं वाक्यं न वक्ति । अपि पुनः यः द्वितीयाणुव्रती कर्कशवचनं न भाषते । मूर्खस्त्वं बलीवर्दस्त्वं न किंचिजानासीति कर्कशवचनं कर्णकटुकप्रायं न वदति। परेषामुद्वेगजननी, कुजातिस्त्वम् , मर्म च कटुका मर्मचालिनी, त्वम् अनेकदोषैर्दुष्टः मद्यपायी अभक्ष्यभक्षकस्त्वम् । परुषां भाषां न भाषते, तव मारयामि तव हस्तपादनासिकादिकं छेदयामि, परस्परविरोधकारिणी भाषेत्यादिवचनं निष्ठरवाक्यं काठिन्य वाक्यं न भाषते । अपि पुनः गुह्यवचनं न भाषते प्रच्छन्नवचनं स्त्रीपुरुषकृतं गुह्यं च गोप्यं वाक्यं न वक्ति । तर्हि किं भाषते । हितमितवचनं भाषते । हितं हितकारिवचनं स्वर्गमुक्तिसुखप्राप्तिकरं पथ्यप्रायं हितवाक्यं वदति, मितं स्वल्पं मर्यादावचनं भाषते । सर्वजीवानां सर्वेषां प्राणिनां संतोषकरण प्रमोदोत्पादक भाषते । तु पुनः, धर्मप्रकाशवचनं धर्मस्य वस्तुखरूपस्य उत्तमक्षमादिदशविधधर्मस्य श्रावकधर्मस्य यतिधर्मस्य वा प्रतिपादकं वाक्यं धर्मोपदेशं वदति । तथा चोक्तं च। 'लाभलोभभयद्वेषैर्कालीक वचनं पुनः । सर्वथा तन्न वक्तव्यं द्वितीयं तदणुव्रतम् ॥” “स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥” अनृतवचनोपायचिन्तनमपि प्रमत्तयोगादनृतमुच्यते । गाथाओंसे दूसरे अणुव्रतका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो हिंसाका वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता और न दूसरेकी गुप्त बातको प्रकट करता है । तथा हित मित वचन बोलता है, सब जीवोंको सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्मका प्रकाश करनेवाला वचन बोलता है, वह दूसरे सत्याणुव्रतका धारी है ।। भावार्थ-जिस वचनसे अन्य जीवोंका घात हो ऐसे वचन सत्याणुव्रती नहीं बोलता । जो वचन दूसरेको कडुआ लगे, जिसके सुनते ही क्रोध आजाये ऐसे कठोर वचन भी नहीं बोलता, जैसे, 'तू मूर्ख है, तू बैल है, कुछ भी नहीं समझता' इस प्रकारके कर्णकटु शब्द नहीं बोलता । जिसको सुनकर दूसरेको उद्वेग हो, जैसे तू कुजात है, शराबी है, कामी है, तुझमें अनेक दोष हैं, मैं तुझे मार डालूंगा, तेरे हाथ पैर काट डालूंगा' इस प्रकारके निष्ठुर वचन नहीं बोलता । किन्तु हितकारी वचन बोलता है, और ज्यादा बक बक नहीं करता, ऐसे वचन बोलता है जिससे सब जीवोंको सन्तोष हो तथा धर्मका प्रकाश हो। कहा भी है-'लोभसे, डरसे, द्वेषसे असत्य वचन नहीं बोलना दूसरा अणुव्रत है ।' खामी समन्तभद्रने रत्नकरंड श्रावकाचारमें सत्याणुव्रतका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-'जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है, तथा सत्य बोलनेसे यदि किसीके जीवनपर संकट आता हो तो ऐसे समयमें सत्यवचन भी नहीं बोलता उसे सत्याणुव्रती कहते हैं। बात यह है कि मूल व्रत अहिंसा है, शेष चारों व्रत तो उसीकी रक्षाके लिये हैं। अतः यदि सत्य बोलनेसे अहिंसाका घात हो तो ऐसे समय अणुव्रती श्रावक सत्य नहीं बोलता। असत्य बोलनेके उपायोंका विचार करना भी असत्यमें ही सम्मिलित है । इस व्रतके भी पाँच अतिचार होते हैं-मिथ्योपदेश, रहोआख्यान, कूट लेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र भेद । मूर्ख लोगोंके सामने स्वर्ग और मोक्षकी कारणरूप क्रियाका वर्णन अन्यथा करना और उन्हें सुमार्गसे कुमार्गमें डाल देना मिथ्योपदेश नामका अतिचार है । दूसरोंकी गुप्त क्रियाको गुप्तरूपसे जानकर दूसरोंपर प्रकट कर देना रहोआख्यान नामका अतिचार है । किसी पुरुषने जो काम नहीं किया, न किसीको करते सुना, द्वेषवश उसे पीड़ा पहुंचानेके लिये ऐसा लिख देना कि इसने ऐसा किया है या कहा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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