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________________ -३२७] १२. धर्मानुप्रेक्षा २३३ मूलगुणाः अष्टचत्वारिंशत्संख्योपेताः कथिताः तर्हि उत्तरगुणा के इति चेदुच्यते। 'मद्य १ मांस २ मधु ३ त्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् ८, तथा 'द्यूतं १ मांसं २ सुरा ३ वेश्या ४ पापर्द्धिः ५ परदारता ६ । स्तेयेन ७ सह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत्॥ इत्यष्टौ मूलगुणाः सप्तव्यसनानि च इति पञ्चविंशतिसंख्योपेताः (3) जघन्यपात्रस्य सम्यग्दृष्टरुत्तरगुणा भवन्ति १५। एवं त्रिषष्टिः सम्यक्त्वस्य गुणाः ६३ । प्रधाना मुख्या यस्य सं सम्यक्त्वगुणप्रधानः स पुमान् देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितो भवति, देवेन्द्राः सौधर्मेन्द्रादयः नरेन्द्राः चक्रवर्त्यादयः तैः सम्यग्दृष्टिर्नरः वन्दितः नमस्करणीयः पूजनीयो भवति । त्यक्तवतोऽपि व्रतरहितोऽपि द्वादशवतरहितोऽपि, अपिशब्दात् व्रतसम्यक्त्वसहितोऽपि, सम्यक्त्ववान् स्वर्गसुख सौधर्मादिदेवलोकसुखं शर्म प्राप्नोति लभते । सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वेन कल्पवासिदेवानामायुर्बध्यते 'सम्यक्त्वं च' इति वचनात् । कीदृशं वर्गसुखम् । उत्तमं सर्वश्रेष्ठ प्रशस्यं सुखम् । पुनः कीदृक्षम्। विविधम् अनेकप्रकारं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं विमानदेवाङ्गनाविक्रियाघुद्भवम् ॥ ३२६॥ सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदि-हेर्नु ण बंधदे कम्मं । जं बहु-भवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ॥ ३२७ ॥ [छाया-सम्यग्दृष्टिः जीवः दुर्गतिहेतु न बध्नाति कर्म । यत् बहुभवेषु बद्धं दुष्कर्म तत् अपि नाशयति ॥] सम्यग्दृष्टिः जीवः कर्म अशुभायु मनीचगोत्रादिकं न बध्नाति प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धैः बन्धनं न करोति । किंभूतं कर्म । छोड़ने से सम्यक्त्वके पांच गुण होते हैं । तथा सात प्रकारके भयको त्यागनेसे सात गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं-इस लोकसम्बन्धी भयका त्याग, परलोकसम्बन्धी भयका त्याग, कोई पुरुष वगैरह मेरा रक्षक नहीं है इस प्रकारके अरक्षाभयका त्याग, आत्मरक्षाके उपाय दुर्ग आदिके अभावमें होनेवाले अगुप्ति भयका त्याग, मरण भयका त्याग, वेदना भयका त्याग और बिजली गिरने आदि रूप आकस्मिक भयका त्याग । तीन शल्योंके त्यागसे तीन गुण होते हैं । मायाशल्य अर्थात् दूसरों को ठगने आदिका त्याग, तत्त्वार्थ श्रद्धानके अभावरूप मिथ्यादर्शन शल्यका त्याग, विषयसुखकी अभिलाषारूप निदान शल्यका त्याग । इस तरह इन सबको मिलानेपर सम्यग्दृष्टिके (२५+८+५ +७+३=४८) अड़तालीस मूल गुण होते हैं । तथा मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग और जुआ मांस मदिरा वेश्या शिकार परस्त्री और चोरी इन सात व्यसनोंका त्याग, इस तरह आठ मूल गुणों और सातों व्यसनोंके त्यागको मिलानेसे सम्यक्त्वके १५ उत्तर गुण होते हैं । सम्यक्त्वके इन ६३ गुणोंसे विशिष्ट व्यक्ति सबसे पूजित होता है । तथा व्रत न होनेपर भी वह देवलोकका सुख भोगता है क्योंकि सम्यक्त्वको कल्पवासी देवोंकी आयुके बन्धका कारण बतलाया है । अतः सम्यग्दृष्टि जीव मरकर सौधर्म आदि वर्गोंमें जन्म लेता है और वहाँ तरह तरहके सुख भोगता है ॥ ३२६ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कर्मोका बन्ध नहीं करता जो दुर्गतिके कारण हैं । बल्कि पहले अनेक भवोंमें जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टिजीव दूसरे आदि नरकोंमें लेजाने वाले अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं करता। आचार्योंका कहना है-'नीचे के छः नरकोंमें, ज्योतिष्क, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें तथा सब प्रकारकी स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि जन्म नहीं लेता । तथा पाँच स्थावर कायोंमें, असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें, निगोदियाजीवोंमें और कुभोगभूमियोंमें सम्यग्दृष्टि नियमसे उत्पन्न नहीं होता। रविचन्द्राचार्यने भी कहा है कि नीचेकी छ: १प व्रतसमस्तसहितोऽपि । २ब दुग्गइ। ३ गतं पणासेति। ४ ब अविरइसम्माइट्टी बहुतस इत्यादि । कार्तिके० ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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