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________________ २३२ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३२६रत्नत्रयमण्डितशरीराणां जुगुप्सनं स्नानाद्यभावे दोषोद्भावनं विचिकित्सा इति तस्या अकरणं सम्यक्त्वस्य विचिकित्सातिचारवर्जनो गुणः । ३ । मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रोद्भावनं प्रशंसा तदकरणं प्रशंसातिचारपरित्यागः सम्यक्त्वगुणः । ४। विद्यमानानाम् अविद्यमानानां मिथ्यादृष्टिगुणानां वचनेन प्रकटनं संस्तवः तस्य निरासः संस्तवातिचारपरित्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः । ५।इति । इहपरलोयत्ताणं अगुत्ति मरणवेयगाकस्सा। सत्तविहं भयमेदं णिद्दिट्ट जिणवरेंदेहि ॥ इहलोकभयपरित्यागः १, परलोकभयवर्जनम् २, पुरुषाद्यरक्षणात्राणभयत्यागः ३, आत्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभयत्यागः ४, मरणभयपा त्यागः ५, वेदनाभयत्यागः ६, विद्युत्पाताद्याकस्मिकभयपरित्यागः ७ । मायाशल्यं माया परवञ्चनं तत्परिहारः सम्यक्त्वस्य गुणः १, मिथ्यादर्शनशल्यं तत्त्वार्थश्रद्धानाभावः तत्त्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः २, निदानशल्य विषयसुखाभिलाषः तस्य परित्यागः सम्यक्त्वस्य गुणः ३, एवं एकत्रीकृताः अष्टचत्वारिंशन्मूलगुणाः जघन्यपात्रस्य सम्यग्दृष्टेः भवन्ति । सम्यक्त्वस्य दूर करना उपबृंहण अथवा उपगृहन नामका गुण है। धर्मके विध्वंस करनेवाले क्रोध, मान, माया, लोभ वगैरह कारणोंके होते हुए भी धर्मसे व्युत न होना और दूसरें यदि धर्मसे व्युत होते हों तो उनको धर्ममें स्थिर करना स्थितिकरण गुण है। जिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट धर्मरूपी अमृतमें नित्य अनुराग रखना, जिनशासनका सदा अनुरागी होना, अथवा जैसे तुरन्तकी व्याही हुई गाय अपने बच्चेसे स्नेह करती है वैसे ही चतुर्विध संघमें अकृत्रिम स्नेह करना वात्सल्य गुण है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा आत्माका प्रकाश करना और महापूजा महादान वगैरह के द्वारा जैन धर्मका प्रकाश करना अर्थात् ऐसे कार्य करना जिनसे जिनशासनका लोकमें उद्योत हो, आठवाँ प्रभावना गुण है । ये सम्यक्त्वके पच्चीस गुण है । टीकाकारने अपनी संस्कृत टीकामें सम्यक्त्वके ६३ गुण बतलाये हैं। और उसमेसे ४८ को मूलगुण और १५ को उत्तर गुण कहा है। सम्यक्त्वके गुणोंके मूल और उत्तर मेद हमारे देखनेमें अन्यत्र नहीं आये । तथा इन त्रेसठ गुणोंमें से कुछ गुण पुनरुक्त पड़जाते हैं । फिरमी पाठकोंकी जानकारी लिये उन शेषगुणोंका परिचय टीकाकारके अनुसार कराया जाता है । सम्यक्त्वके आठ गुण और हैं-संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य । धर्म और धर्मफलमें अत्यन्त अनुराग होना संवेग है। संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होना निर्वेद है । निन्दा खयं की जाती है और गर्हा गुरु वगैरहकी साक्षीपूर्वक होती है । क्षमाभावको उपशम कहते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी तथा सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी, और चारित्रवानोंकी भक्ति करना भक्ति है । सब प्राणियोंपर दया करना अनुकम्पा है । साधर्मी जनोंमें वात्सल्य होता है । ये सम्यक्त्व के आठ गुण हैं । तथा शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तव, ये सम्यग्दृष्टिके अतिचार हैं । जैसे निम्रन्थोंकी मुक्ति कही है वैसेही सग्रन्थ गृहस्थोंकी भी मुक्ति होसकती है क्या ? ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये। यह सम्यक्त्वका शंका अतिचारसे बचने रूप प्रथम गुण है । इस लोक और पर लोकके भोगोंकी चाहको कांक्षा कहते हैं । इस कांक्षा अतिचारसे बचना सम्यक्त्वका दूसरा गुण है । रमत्रयसे मण्डित निम्रन्थ साधुओंके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि करना विचिकित्सा है, और उसका न करना सम्यक्त्वका तीसरा गुण है। मिथ्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्रकी मनसे तारीफ करना प्रशंसा है, और उसका न करना सम्यक्त्वका चौथा गुण है । मिथ्यादृष्टिमें गुण हों अथवा न हों, उनका वचनसे बखान करना संस्तव है, और उसका न करना सम्यक्त्वका पाँचवा गुण है । इस तरह पाँच अतिचारोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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