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________________ २२८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३२३[छाया-तत् तस्य तस्मिन् देशे तेन विधानेन तस्मिन् काले । कः शक्नोति वारयितुम् इन्द्रः वा तथा जिनेन्द्रः वा ॥] तस्य पुंसः जीवस्य तस्मिन् देशे अजबगाकलिङ्गगुर्जरादिके नगरग्रामवनादिके तेन विधानेन शस्त्रविषादियोगेन तस्मिन् काले समयपलघटिकाप्रहरदिनपक्षादिके तत् जन्ममरणसुखदुःखादिकं कः इन्द्रः शक्रः अथवा जिनेन्द्रः सर्वज्ञः, वाशब्दोऽत्र समुच्चयार्थः, राजा गुरुर्वा पितृमात्रादिर्वा चालयितुं निवारयितुं शक्नोति समर्थो भवति कोऽपि, अपि तु न ॥ ३२२॥ अथ सम्यग्दृष्टिलक्षणं लक्षयति-- एवं जो णिच्छयदो जाणदि दवाणि सब-पजाए । सो सद्दिट्टी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्टी ॥ ३२३ ॥ अथवा मरण जिन देवने नियत रूपसे जाना है, उस जीवके उसी देशमें, उसी कालमें, उसी विधानसे वह अवश्य होता है, उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टाल सकनेमें समर्थ है ? ॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टि यह जानता है कि प्रत्येक पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत है । जिस समय जिस क्षेत्रमें जिस वस्तुकी जो पर्याय होने वाली है वही होती है उसे कोई नहीं टाल सकता । सर्वज्ञ देव सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अवस्थाओंको जानते हैं। किन्तु उनके जानलेनेसे प्रत्येक पर्यायका द्रव्य क्षेत्र काल और भाव नियत नहीं हुआ बल्कि नियत होनेसे ही उन्होंने उन्हें उस रूपमें जाना है । जैसे, सर्वज्ञ देवने हमें बतलाया है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय पूर्व पर्याय नष्ट होती है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है । अतः पूर्व पर्याय उत्तर पर्यायका उपादान कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्यायका कार्य है । इसलिये पूर्व पर्यायसे जो चाहे उत्तर पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु नियत उत्तर पर्याय ही उत्पन्न होती है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो मिट्टीके पिण्डमें स्थास कोस पर्यायके बिना भी घट पर्याय बन जायेगी । अतः यह मानना पड़ता है कि प्रत्येक पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत है । कुछ लोग इसे नियतिवाद समझकर उसके भयसे प्रत्येक पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र और भाव तो नियत मानते हैं किन्तु कालको नियत नहीं मानते । उनका कहना है कि पर्यायका द्रव्य, क्षेत्र और भाव तो नियत है किन्तु काल नियत नहीं है; कालको नियत माननेसे पौरुष व्यर्थ होजायेगा । किन्तु उनका उक्त कथन सिद्धान्तविरुद्ध है; क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र और भाव नियत होते हुए काल अनियत नहीं हो सकता । यदि कालको अनियत माना जायेगा तो काललब्धि कोई चीजही नहीं रहेगी। फिर तो संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गल परावर्तनसे अधिक शेष रहते मी सम्यक्त्व प्राप्त हो जायेगा और बिना उस कालको पूरा किये ही मुक्ति होजायेगी। किन्तु यह सब बातें आगम विरुद्ध हैं। अतः कालको भी मानना ही पड़ता है । रही पौरुषकी व्यर्थता की आशङ्का, सो समयसे पहले किसी कामको पूरा करलेनेसे ही पौरुषकी सार्थकता नहीं होती । किन्तु समयपर कामका होजाना ही पौरुषकी सार्थकताका सूचक है। उदाहरणके लिये, किसान योग्य समयपर गेहूं बोता है और खूब श्रमपूर्वक खेती करता है । तभी समयपर पककर गेहूं तैयार होता है । तो क्या किसानका पौरुष व्यर्थ कहलायेगा ! यदि वह पौरुष न करता तो समयपर उसकी खेती पककर तैयार न होती, अतः कालकी नियततामें पौरुषके व्यर्थ होनेकी आशंका निर्मूल है । अतः जिस समय जिस द्रव्यकी जो पर्याय होनी है वह अवश्य होगी। ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि सम्पत्तिमें हर्ष और विपत्तिमें विषाद नहीं करता, और न सम्पत्तिकी प्राप्ति तथा विपत्तिको दूर करनेके लिये देवी देवताओंके आगे गिड़गिड़ाता फिरता है ॥ ३२१-३२२ ।। आगे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिका भेद बतलाते हैं । अर्थ-इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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