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________________ -३१४] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२३ जो ण य कुबदि गवं पुत्त-कलत्ताइ-सब-अत्थेसु । उवसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिण-मेत्तं ॥ ३१३ ॥ [छाया-यः न च कुरुते गर्व पुत्रकलत्रादिसर्वार्थेषु । उपशमभावे भावयति आत्मानं जानाति तृणमात्रम् ॥ ] यो भव्यः गर्वम् अहंकारं ज्ञानकुलजातिवलऋद्धिपूजातपोवपुरात्मकमष्टप्रकारं न करोति न विदधाति । क्व गर्व न करोति । पुत्रकलत्रादिसवार्थेषु, पुत्रः सुतः कलत्रं युवतिः आदिशब्दात् धनधान्यगृहहट्टद्विपदचतुष्पदकुलजातिरूपादिपदार्थेषु । यः उपशमभावान् उपशमपरिणामान् शत्रुमित्रवर्णतृणादिषु समानपरिणामान् शाम्यरूपान् रत्नत्रयषोडशभावनादिभावान् , उपलक्षणात् क्षायिकपरिणामांश्च भावयति. अनुभवति, आत्मानं तृणमानं मन्यते मनुते मानयति जानाति । अहं अकिंचनोऽस्मि इति भावयतीत्यर्थः ॥ ३१३ ॥ विसयासत्तो वि सया सवारंभेसु वट्टमाणो वि। मोह-विलासो एसो इदि सवं मण्णदे हेयं ॥ ३१४ ॥ [छाया-विषयासक्तोऽपि सदा सर्वारम्भेषु वर्तमानः अपि । मोहविलासः एष इति सर्वं मन्यते हेयम् ॥] इत्यमुना प्रकारेण सर्व विषयादिकं हेयं त्याज्यं मन्यते जानाति इति, एषः प्रत्यक्षीभूतो मोहविलासः मोहनीयकर्मविलासविलसनं चेष्टा । कीदृक् सन् सर्वं हेयं पुत्रकलत्रशरीरधनधान्यसुवर्णरूप्यगृहादिपरद्रव्यं सर्ववस्तु त्याज्यं मन्यते जानाति मनुते । सदा निरन्तरं विषयासक्तोऽपि, इन्द्रियाणां विषयेषु आसक्तिं प्रीतिं गतोऽपि, अपिशब्दात् विरक्तः सन् सर्व हेयं परवस्तु त्याज्यं मनुते । पुनः सर्वारम्भेषु असिमषिकृषिवाणिज्यपशुपालनादिव्यापारेषु वर्तमानोऽपि सर्वव्यापारान् कुर्वन्नपि सर्व हेयं भरतचक्रीवत् मन्यते । अपिशब्दात् सर्वारम्भेषु विरक्तः सर्वं हेयं मन्यते । उक्तं च । “धात्री बाला सती नाथ पधिनीजलबिन्दुवत् । दग्धरज्जवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥” इति ॥ ३१४ ॥ अपनेको तृण समान मानता है || भावार्थ-शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी होकर भी ज्ञानका मद' नहीं करता, उच्च कुल और उच्च जाति पाकर भी कुल और जातिका मद नहीं करता, बलवान होकर भी अपनी शक्तिके नशेमें चूर नहीं होता, पुत्र स्त्री धन धान्य हाट हवेली नौकर चाकर आदि विभूति पाकर भी मदान्ध नहीं होता, जगतमें आदर सत्कार होते हुए भी अपनी प्रतिष्ठापर गर्व नहीं करता, न सुन्दर सुरूप शरीरका ही अभिमान करता है । और यदि तपखी हो जाता है तो तपका अभिमान नहीं करता । शत्रु मित्र और कंचन काचको समान समझता है । रत्नत्रय और सोलह कारण भावनाओंको ही सदा भाता है । तथा अपनेको सबसे तुच्छ मानता है ॥ ३१३ ॥ अर्थविषयोंमें आसक्त होता हुआ भी तथा समस्त आरम्भोंको करता हुआ भी यह मोहका विलास है ऐसा मानकर सबको हेय समझता है ॥ भावार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है और त्रस स्थावर जीवोंका जिसमें घात होता है ऐसे आरम्भोंको भी करता है फिर भी वह यह जानता है कि यह सब मोहकर्मका विलास है, मेरा खभाव नहीं है, एक उपाधि है, त्यागने योग्य है । किन्तु यह जानते हुए भी कर्मके उदयसे बलात् प्रेरित होकर उसे विषयभोगमें लगना पड़ता है | उसकी दशा उस चोरके समान है जो कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाकर फांसीके तख्ते पर लटकाया जाने वाला है। पकड़े जानेपर चोरको कोतवाल जो जो कष्ट देता है उसे वह चुपचाप सहता है और अपनी निन्दा करता है। इसी तरह कर्मोंके वश हुआ सम्यग्दृष्टि जीव भी असमर्थ होकर विषय सेवन १मनणमित्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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