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________________ -२८०] १०. लोकानुप्रेक्षा २०१ विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥ २७९ ॥ [छाया-विरलाः निशृण्वन्ति तत्त्वं विरलाः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वम् । विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति ॥] विरलाः स्वल्पाः केचन तत्त्ववेत्तारः सावधानाः सन्तः पुरुषाः तत्त्वं जीवादितत्त्वस्वरूपम् अतिशयेन शृण्वन्ति समाकर्णयन्ति । पुनः तत्त्वतः परमार्थतः परमार्थबुध्द्या कर्मक्षयबुध्द्या वा विरलाः खल्पतराः सम्यग्बोधमयान्त:करणाः केचन नराः तत्त्वं जीवादिपदार्थस्वरूपं जानन्ति विदन्ति । पूर्व तत्त्वखरूपं श्रुत्वा पश्चात् तज्जानन्तीत्यर्थः । पुनः विरलाः खल्पतराणां मध्ये स्वल्पतराः तुच्छाः पञ्चषाः सम्यग्दृष्टयः तत्त्वं जीवादिस्वरूपं भावयन्ति भावनाविषयीकुर्वन्ति खतत्त्वपरतत्त्वं श्रुत्वा ज्ञात्वा च पुद्गलादिकं त्यक्त्वा स्वखरूपं शुद्धखरूपं खतत्त्वम् अहंदादिपरतत्त्वं वा ध्यायन्ति चिन्तयन्तीत्यर्थः । उक्तं च । श्लो० ॥ 'विद्यन्ते कति नात्मबोधविमुखाः संदेहिनो देहिनः, प्राप्यन्ते कतिचित् कदाचन पुनर्जिज्ञासमानाः क्वचित् । आत्मज्ञाः परमप्रमोदसुखिनः प्रोन्मीलदन्तर्दशो, द्वित्राः स्युर्बहवो यदि त्रिचतुरास्ते पञ्चषा दुर्लभाः ॥ इति विरलानां सम्यग्भावितचित्तानां केषांचित्पुंसां धारणा जीवादितत्त्वधारणा कालान्तरेणाविस्मरण भवति ॥ २७९ ॥ अथ तत्त्वानां कथनेन ग्रहणादिना च तत्त्वज्ञातृत्वं ज्ञापयति त कहिजमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो हि । तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाणेई ॥ २८० ॥ ॥ २७८ ॥ आगे कहते हैं कि तत्त्वोंको सुनने, जानने, अवधारण करने और मनन करनेवाले मनुष्य दुर्लभ हैं । अर्थ-जगतमें विरले मनुष्य ही तत्त्वको सुनते हैं। सुननेवालों से भी विरले मनुष्य ही तत्त्वको ठीक ठीक जानते हैं । जाननेवालोंमेंसे भी विरले मनुष्य ही तत्त्वकी भावना-सतत अभ्यास करते हैं। और सतत अभ्यास करनेवालोंमेंसे भी तत्त्वकी धारणा विरले मनुष्योंको ही होती है ॥ भावार्थ-संसारमें राग रंग और काम भोगकी बातें सुननेवाले बहुत हैं, किन्तु तत्त्वकी बात सुननेवाले बहुत कम हैं । राग रंगकी बातें सुननेके लिये मनुष्य पैसा खर्च करता है किन्तु तत्त्वकी बात मुफ्त मी सुनना पसन्द नहीं करता । यदि कुछ लोग भूले भटके या पुराने संस्कारवश तत्त्वचर्चा सुनने आ भी जाते हैं तो उनमेंसे अधिकांशको नींद आने लगती है, कुछ समझते नहीं हैं । अतः सुननेवालोंमेंसे भी कुछ ही लोग तत्वको समझ पाते हैं । जो समझते हैं वे भी अपनी गृहस्थीके मोहजालके कारण दिनभर दुनियादारीमें फंसे रहते हैं । अतः उनमेंसे भी कुछ ही लोग तत्त्वचर्चासे उठकर उसका चिन्तन-मनन करते हैं । चिन्तन मनन करनेवालोंमेंसे भी तत्त्वकी धारणा कुछको ही होती है । अतः तस्वको सुननेवाले, सुनकर समझनेवाले, समझकर अभ्यास करनेवाले और अभ्यास करके भी उसे स्मरण रखनेवाले मनुष्य उत्तरोत्तर दुर्लभ होते हैं। कहा भी है-'आत्म ज्ञानसे विमुख और सन्देहमें पडे हुए प्राणी बहुत हैं । जिनको आत्माके विषयमें जिज्ञासा है ऐसे प्राणी कचित् कदाचित् ही मिलते हैं, किन्तु जो आत्मिक प्रमोदसे सुखी हैं तथा जिनकी अन्तर्दृष्टि खुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किन्तु पाँचका होना दुर्लभ है। ॥ २७९ ॥ आगे कहते हैं कि तत्त्वको कौन जानता है । अर्थ-जो पुरुष गुरुओंके द्वारा १लग णिसुणदि । २ स धारणं। ३ गतं भावेई । ४ ब वियाणेह (-दि)। कात्तिके० २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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