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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २७८ [ छाया-येन स्वभावेन यदा परिणतरूपे तन्मयत्वात् । तं परिणामं कथयति यः अपि नयः स खलु परमार्थः ॥ ] सोऽपि नयः एवंभूतः परमार्थतः सत्यरूपो ज्ञेयः यः परमार्थः एवंभूतनयः यदा यस्मिन् क्षणे परिणतरूपे वस्तुनि पदार्थे परिणतवति पर्याय संयुक्त अर्थ येन स्वभावेन शकनपुरदार णेन्दनादिस्वभावेन तत्परिणामं शक्रपुरंदरेन्द्रादिपर्यायम् एकस्मिन्नेव क्षणे साधयति प्रकाशयति । कुतः तन्मयत्वात्, तत् शक्रपुरंदरेन्द्रादिपर्यायमयत्वात् । अथवा तन्मात्रत्वात् पाठे, पाकशासनस्य जम्बूद्वीपादिपरिवर्तनसामर्थ्यादिपुरदारणपरमैश्वर्यादिपर्याय मात्रत्वात् । तदुक्तं नयचक्रे शब्दभेदे अर्थभेदोsयस्ति । यथा शक्रः पुरंदरः इन्द्रः इति । तथाहि । यस्मिन्नेककाले शक्नोति जम्बूद्वीपपरावर्तने समर्थो भवतीति शक्रः । अन्यदा यस्मिन्नेव काले ऐश्वर्य प्राप्नोति तदैवेन्द्र उच्यते, न चाभिषेककाले न पूजनकाले इन्द्र उच्यते । यस्मिन्नेव काले गमन परिणतो भवति तदेव गौरुच्यते न स्थितिकाले न शयनकाले । अथवा इन्द्रज्ञान परिणतः आत्मा इन्द्र उच्यते । अभिज्ञान परिणतः आत्मा अग्निश्चेति, एवंभूतनयलक्षणम् ॥ २७७ ॥ अथ नयानाम् उपसंहारं व्यनक्ति २०० एवं विवि-एहिं जो वत्युं ववहरेदि लोयम्मि' | दंसण- णाण-चरितं सो साहदि सग्ग- मोक्खं च ॥ २७८ ॥ [ छाया - एवं विविधनयैः यः वस्तु व्यवहरति लोके । दर्शनज्ञानचरित्रं स साधयति स्वर्गमोक्षं च ॥ ] एवं पूर्वोक्तप्रकारेण लोके जगति यः पुमान् वस्तु जीवपुद्गलधर्मादिपदार्थं व्यवहरति व्यवहारविषयीकरोति । भेदोपचारतया वस्तु व्यवह्रियते भेदेन व्यवहरणं करोति । कैः । विविधनयैः नानाप्रकारनयैः, नैगम संग्रहव्यवहार ऋजुसूत्र शब्दसमभिरूढैवंभूतनयैः द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां निश्चयव्यवहारनयाभ्याम् उपनयैश्च जीवादिवस्तु व्यवहरति यः स पुमान् दर्शनज्ञानचारित्रं दर्शनं सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वं ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं बोधः चारित्रं त्रयोदशधा, सामायिकच्छेदोपस्थापनादिरूपं पञ्चधा वा समाहारद्वन्द्वसमासः व्यवहारनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं रत्नत्रयं साधयति स्वविषयीकरोति यः, च पुनः, स्वर्गमोक्षौ खर्गः सौधर्मादिकल्पः मोक्षः अष्टकर्मविप्रमुक्तः सिद्धपर्यायः तौ द्वौ स साधयति प्राप्नोति ॥ २७८ ॥ अथ तत्वश्रवणमननभावनाधारणादिकर्तारः नराः दुर्लभा इत्यावेदयति । है। यह एवंभूत नय परमार्थरूप है ॥ भावार्थ- जो वस्तु जिस समय जिस पर्याय रूप परिणत हो उस समय उसी रूपसे उसे ग्रहण करनेवाला नय एवंभूत है । जैसे स्वर्गका स्वामी जिस समय आनन्द करता हो उसी समय इन्द्र है, जिस समय वह सामर्थ्यशाली है उसी समय शक्र है और जिस समय वह नगरोंको उजाड़ रहा है उसी समय पुरन्दर है, यदि वह भगवानका अभिषेक या पूजन कर रहा है तो उसे इन्द्र वगैरह नहीं कह सकते । इसी तरह 'गौ' का अर्थ है जो चलनेवाली हो । तो जब गाय चलती हो तभी वह 'गौ' है, बैठी हुई हो या सोती हो तो उसे गौ नहीं कहना चाहिये । अथवा जिस समय जो आत्मा जिस ज्ञान रूप परिणत है उस समय उसे उसी रूपसे ग्रहण करना एवंभूत नय है । जैसे, इन्द्रको जाननेवाला आत्मा इन्द्र है और अग्निको जाननेवाला आत्मा अग्नि है । इसीसे इस नयको परमार्थ नय कहा है; क्यों कि यह यथार्थ वस्तु खरूपका ग्राहक है ॥ २७७ ॥ अब नयोंका उपसंहार करते हैं । अर्थ-इस प्रकार जो पुरुष नयोंके द्वारा लोकमें वस्तुका व्यवहार करता है वह पुरुष सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको और स्वर्ग मोक्षको साधता है । भावार्थ-उक्त प्रकारसे द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक और उनके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत नयोंसे तथा निश्चयनय और व्यवहार नयसे वस्तुतत्त्वको जानकर जो वस्तुका व्यवहार करता है, उसे ठीक रूपसे जानता तथा कहता है वही रत्नत्रयको तथा खर्ग मोक्षको प्राप्त करता है १ ल ग लोयहि | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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