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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २५९पंचिंदिय-णाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं । मण-णाणे उवजुत्तो इंदिय-णाणं ण जाणेदि ॥ २५९ ॥ [ छाया-पश्चेन्द्रियज्ञानानां मध्ये एकं च भवति उपयुक्तम् । मनोज्ञाने उपयुक्तः इन्द्रियज्ञानं न जानाति ॥] पञ्चेन्द्रियज्ञानानां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रजज्ञानानां मध्ये एकस्मिन् काले एकं ज्ञानम् उपयुक्तम् उपयोगयुक्तं विषयग्रहणव्यापारयुक्तं भवति । मनोज्ञाने उपयुक्ते नोइन्द्रियज्ञाने उपयुक्ते विषयग्रहणव्यापारोपयुक्ते सति इन्द्रियज्ञानं पञ्चेन्द्रियाणां ज्ञानं न जायते न उत्पद्यते । अथवा मनसो ज्ञानेन उपयुक्तः मनोज्ञानव्यापारसहितो जीवः इन्द्रियज्ञानं न जानाति । यदा जीवः मनसा एकाग्रचेतसा आरौिद्रधर्मादिध्यानं धरति, तदा इन्द्रियाणां ज्ञानं न स्फुरतीत्यर्थः । वा इन्द्रियज्ञानं एकैकं जानाति । चक्षुज्ञानं घ्राणं न जानाति इत्यादि ॥ २५९ ॥ ननु यद्भवद्भिरुक्तम् एकस्मिन् काले एकस्यैवेन्द्रियज्ञानस्योपयोगस्तदप्ययुक्तम् । केनचित्पुंसा करगृहीतशष्कुल्यां भक्ष्यमाणायां सत्यां तद्गन्धग्रहणं घ्राणस्य तचर्वणशब्दग्रहणं श्रोत्रस्य तद्वर्णग्रहणं चक्षुषोः तत्स्पर्शग्रहणं करस्य तद्रसग्रहणं जिह्वायाश्च जायते । इति पञ्चेन्द्रियाणां ज्ञानस्य [ उपयोगः ] युगपदुत्पद्यते इति वावदूकं वादिनं प्रतिवदति एके काले एक णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं । णाणा-णाणाणि पुणो लद्धि-सहावेण वुचंति ॥२६॥ प्रकारका अवाय और बारह प्रकारका धारणा ज्ञान होता है । ये सब मिलकर ४८ भेद होते हैं। तथा इनमेंसे प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रियों और मनसे होता है अतः ४८४६=२८८ भेद मतिज्ञानके होते हैं। तथा अस्पष्ट शब्द वगैरहका केवल अवग्रह ही होता है, ईहा आदि नहीं होते । उसे व्यञ्जनावग्रह कहते हैं । और व्यंजनावग्रह चक्षु और मनको छोडकर शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है। अतः बहु आदि विषयोंकी अपेक्षा व्यंजनावग्रहके ४८ भेद होते हैं । २८८ भेदोंमें इन ४८ भेदोंको मिलानेसे मतिज्ञानके ३३६ भेद होते हैं ॥२५८ ॥ आगे कहते हैं कि पांचों इन्द्रियज्ञानोंका उपयोग क्रमसे होता है, एक साथ नहीं होता । अर्थ-पांचों इन्द्रियज्ञानोंमेंसे एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता है । तथा मनोज्ञानका उपयोग होने पर इन्द्रियज्ञान नहीं होता ॥ भावार्थ-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोमेंसे एक समयमें एक ज्ञान ही अपने विषयको ग्रहण करता है । इसी तरह जिस समय मनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अपने विषयको जानता है उस समय इन्द्रिय ज्ञान नहीं होता । सारांश यह है कि इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग क्रमसे ही होता है । एक समयमें एकसे अधिक ज्ञान अपने २ विषयको ग्रहण नहीं कर सकते, अर्थात् उपयोग रूप ज्ञान एक समयमें एक ही होता है ॥ २५९ ॥ शङ्का-आपने जो यह कहा है कि एक समयमें एक ही इन्द्रिय ज्ञानका उपयोग होता है यह ठीक नहीं है, क्योंकि हाथकी कचौरी खानेपर घ्राण इन्द्रिय उसकी गन्धको सूंघती है, श्रोत्रेन्द्रिय कचौरीके चबानेके शब्दको ग्रहण करती है, चक्षु कचौरीको देखती है, हाथको उसका स्पर्श ज्ञान होता है और जिह्वा उसका खाद लेती है, इस तरह पांचों इन्द्रिय ज्ञान एक साथ होते हैं । इस शङ्काका समाधान करते हैं । अर्थ-जीवके एक समयमें एक ही ज्ञानका उपयोग होता है। किन्तु लब्धि रूपसे एक समयमें अनेक ज्ञान कहे हैं ॥ भावार्थ-प्रत्येक क्षायोपशमिक ज्ञानकी दो अवस्थाएँ होती हैं-एक लब्धिरूप और एक उपयोगरूप । अर्थको ग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि १ब पंचिंदिय, ल म स ग पंचेंदिय। २ ब जाणा(णे ? )दि, ल म स जाएदि, ग जाएहि । ३ मग एके । ४ ल म सग एगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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