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________________ -२५७] १०. लोकानुप्रेक्षा १८१ घटपटादिचेतनाचेतनादिवस्तु पदार्थः ज्ञानप्रदेशे न याति न गच्छति । तर्हि किम् । अस्ति निजनिजप्रदेशस्थिताना ज्ञानज्ञेयानां प्रमाणप्रमेयानां ज्ञानज्ञेयव्यवहारः । यथा दर्पणः स्वप्रदेशस्थित एव स्वप्रदेशस्थं वस्तु प्रकाशयति तथा ज्ञानं ज्ञेयं च । 'सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते।' इति वचनात् ॥ २५६ ॥ अथ मनःपर्ययज्ञानादीनां देशप्रत्यक्ष परोक्षं च विशदयति मण-पजय-विण्णाणं ओही-णाणं च देस-पच्चक्खं । मदि-सुदि'-णाणं कमसो विसद-परोक्खं परोक्खं च ॥ २५७ ॥ [छाया-मनःपर्ययविज्ञानम् अवधिज्ञानं च देशप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतिज्ञान क्रमशः विशदपरोक्षं परोक्षं च ॥] मनःपर्ययज्ञानं मनसा परमनसि स्थितं पदार्थ पर्येति जानाति इति मनःपर्ययं तच तज्ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानं वा परकीयमनसि स्थितोऽर्थः साहचर्यान्मनः इत्युच्यते तस्य मनसः पर्ययणं परिगमनं परिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं क्षायोपशमिकम् ऋजुमतिविपुलमतिभेदभिनं च । पुनः अवधिज्ञानम् अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावेन मर्यादीक्रियते, अर्वाग्धानं अवधिः अधस्ताद्वहुतरविषयग्रहणात् अवधिः देशावधिपरमावधिसर्वावधिज्ञानं च । देशप्रत्यक्षम् एकदेशविशदम् । मनःभावार्थ-आचार्य समन्तभद्रने रत्नकरंड श्रावकाचारके आरम्भमें भगवान महावीरको नमस्कार करते हुए उनके ज्ञानको अलोक सहित तीनों लोकोंके लिये दर्पणकी तरह बतलाया है । अर्थात् जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहते हुए ही अपने स्थानपर रखे हुए पदाथाको प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान भी अपने स्थानपर रहते हुए ही अपने अपने स्थानपर स्थित पदार्थोंको जान लेता है । प्रवचनसारमें भी कहा है कि आत्मा ज्ञानखभाव है और पदार्थ ज्ञेयखरूप हैं । अर्थात् जानना आत्माका खभाव है और ज्ञानके द्वारा विषय किया जाना पदार्थोंका स्वभाव है । अतः जैसे चक्षु रूपी पदार्थोके पास न जाकर ही उनके खरूपको ग्रहण करनेमें समर्थ है, और रूपी पदार्थ भी नेत्रोंके पास न जाकर ही अपना खरूप नेत्रोंको जनानेमें समर्थ हैं, वैसे ही आत्मा भी न तो उन पदार्थोके पास जाता है और न वे पदार्थ आत्माके पास आते हैं । फिरभी दोनोंमें ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध होनेसे आत्मा सबको जानता है और पदार्थ अपने खरूपको जनाते हैं। जैसे दूधके बीचमें रखा हुआ नीलम अपनी प्रभासे उस दूधको अपनासा नीला कर लेता है । उसी प्रकार ज्ञान पदार्थोंमें रहता है । अर्थात् दूधमें रहते हुए भी नीलम अपनेमें ही है और दूध अपने रूप है तभी तो नीलमके निकालते ही दूध स्वाभाविक स्वच्छ रूपमें हो जाता है । ठीक यही दशा ज्ञान और ज्ञेयकी है ॥२५६ ॥ आगे शेष ज्ञानोंको देश प्रत्यक्ष और परोक्ष बतलाते हैं । अर्थ मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं । मतिज्ञान प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी है । और श्रुतज्ञान परोक्ष ही है | भावार्थ-जो आत्माके द्वारा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको प्रत्यक्ष जानता है, उसे मनः पर्यय ज्ञान कहते हैं । अथवा दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको मनमें रहनेके कारण मन कहते हैं । अर्थात् 'मनःपर्यय' में 'मन' शब्दसे मनमें स्थित रूपी पदार्थ लेना चाहिये । उस मनको जो जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। यह मनःपर्ययज्ञान मनःपर्ययज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होता है, अतः क्षायोपशमिक है । उसके दो भेद हैंऋजुमति और विपुलमति । तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लिये हुए रूपी पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । अवधिका अर्थ मर्यादा है । अथवा अवाय यानी १बम मइसुइ । २ब विसय ()। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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