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________________ १८० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २५५स्कन्धादिपर्यायाः । अलोकाकाशे अलोकाकाशं द्रव्यं तस्य पर्याया अगुरुलध्वादयः उत्पादव्ययध्रौव्यादयश्च तैः संयुक्त जानाति पश्यति च । 'सर्वव्यपर्यायेष केवलस्य' इति वचनात । तथा चोक्तं च । क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ॥' इति ॥ २५४ ॥ अथ ज्ञानस्य सर्वगतत्वं प्रकाशयति सव्वं जाणदि जम्हा सव्व-गयं तं पि वुच्चदे तम्हा । ण य पुण विसरदि णाणं जीवं चइऊण अण्णत्थ ॥ २५५ ॥ [छाया-सर्व जानाति यस्मात् सर्वगतं तत् अपि उच्यते तस्मात् । न च पुनः विसरति ज्ञानं जीवं त्यक्त्वा अन्यत्र ॥] तस्मात्कारणात् तदपि केवलज्ञानं सर्वगतं सर्वलोकालोकव्यापकम् उच्यते । कुतः । यस्मात् सर्वव्यगुणपर्याययुक्तं लोकालोकं जानाति वेत्ति । अथ च ज्ञानं संयोगसंयुक्तसमवायसंयुक्तसमवेतसमवायसमवायसमवेतसमवायसंनिकः ज्ञेयप्रदेशं गत्वा प्रत्यक्षं जानाति इति नैयायिकाः । तेऽपि न नैयायिकाः । कुतः जीवम् आत्मानं गुणिनं त्यक्त्वा अन्यत्र ज्ञेयप्रदेशं ज्ञानं न च पुनः विसरति प्रसरति न यातीत्यर्थः ॥ २५५॥ अथ ज्ञानज्ञेययोः खप्रदेशस्थितित्वेऽपि प्रकाशकत्वमिति युक्तिं नियुक्ते णाणं ण जादिणेयं णेयं पि ण जादि णाण-देसम्मि। णिय-णिय-देस-ठियाणं ववहारो णाण-णेयाणं ॥ २५६ ॥ [छाया-ज्ञानं न याति ज्ञेयं ज्ञेयम् अपि न याति ज्ञानदेशे । निजनिज देशस्थितानां व्यवहारः ज्ञानज्ञेययोः ॥] ज्ञानं बोधः प्रमाणं ज्ञेयं प्रमेयं ज्ञातुं योग्यं ज्ञेयं वस्तु चेतनाचेतनादि प्रति न याति न गच्छति । अपि पुनः ज्ञेयं प्रमेयं सब द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको केवल ज्ञानका विषय बतलाया है । एक दूसरे ग्रन्थमें केवलज्ञानको नमस्कार करते हुए कहा है कि केवलज्ञान क्षायिक है; क्योंकि समस्त ज्ञानावरण कर्मका क्षय होनेपर ही केवलज्ञान प्रकट होता है । इसीसे वह अकेला ही रहता है । उसके साथ अन्य मति श्रुत आदि ज्ञान नहीं रहते, क्योंकि ये ज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्मके रहते हुए ही होते हैं, और केवलज्ञान उसके चले जानेपर होता है। अतः केवलज्ञान सूर्यकी तरह अकेला ही त्रिकालवर्ती सब पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता हैं । क्षायिक होनेसे ही उसका कभी अन्त नहीं होता। अर्थात् एक बार प्रकट होनेपर वह सदा बना रहता है। क्योंकि उसको ढांकनेवाला ज्ञानावरण कर्म नष्ट हो चुका है। अतः वह समस्त सुखोंका भण्डार है॥२५४ ॥ आगे ज्ञानको सर्वगत कहते हैं। अर्थ-यतः ज्ञान समस्त लोकालोकको जानता है अतः ज्ञानको सर्वगत भी कहते हैं। किन्तु ज्ञान जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ॥ भावार्थ-सर्वगतका मतलब होता है सब जगह जानेवाला । अतः ज्ञानको सर्वगत कहनेसे यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि ज्ञान आत्माको छोडकर पदार्थके पास चला जाता है किन्तु आत्मामें रहते हुए ही वह समस्त लोकालोकको जानता है इसीलिये उसे सर्वगत कहते हैं । प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुन्दने इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है कि आत्मा ज्ञानके बराबर है और ज्ञान ज्ञेयके बराबर है । तथा ज्ञेय लोकालोक है । अतः ज्ञान सर्वगत है ॥ २५५॥ आगे कहते हैं कि ज्ञान अपने देशमें रहता है और ज्ञेय अपने देशमें रहता है, फिरभी ज्ञान ज्ञेयको जानता है । अर्थ-ज्ञान ज्ञेयके पास नहीं जाता और न ज्ञेय ज्ञानके पास आता है । फिरभी अपने अपने देशमें स्थित ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञेयज्ञायकव्यवहार होता है । १म सचदे। २ बजाइ। ३ मसग देसम्।ि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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