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________________ -२०९] १०. लोकानुप्रेक्षा १४३ कम्प्रवायुरुच्यासलक्षणः स प्राणः, तेनैव वायुनात्मनो बाह्यवायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपानः, तौ चात्मनोऽनुग्राहिणी जीवितहेतुत्वात् । ते च मनःप्राणापानाः मूर्तिमन्तः मनसः प्रतिभयहेत्वशनिपातादिभिः प्राणापानयोश्च श्वादिपूतगन्धप्रतिभयेन हस्ततलपुटादिभिर्मुखसंवरणेन श्लेष्मणा वा प्रतिघातदर्शनात् । अमूर्तस्य मूर्तिमद्भिः तदसंभवाश्च । तथा सदसद्वेद्योदयान्तरङ्गतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशेनोत्पद्यमानप्रीतिपरितापरूपपरिणामो सुखदुःखे । आयुरुदयेन भवस्थिति बिभ्रतो जीवस्य प्राणापानक्रियाविशेषव्युच्छेदो मरणम् । तानि सुखदुःखप्राणापानजीवितमरणान्यपि पौद्गलिकानि मूर्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्तिसंभवात् । न केवलं शरीरादीनामेव निर्वृत्तकारणभूताः पुद्गलानामपि, कांस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिर्लोहादीनां ज्वलनादिभिश्चोपकारदर्शनात् । एवमौदारिकवैक्रियिकाहारकनामकर्मोदयादाहारवर्गणया त्रीणि शरीराण्युच्छ्वासनिःश्वासौ च तैजसनामकर्मोदयात् तेजोवर्गणया तेजसशरीरम् कार्मणनामकर्मोदयात् कार्मणवर्गणया कार्मणशरीरम्, खरनामकर्मोदयाद्भाषावर्गणया वचनम्, मनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमोपेतसंज्ञिनोऽङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयात् मनोवर्गणया द्रव्यमनश्च भवतीत्यर्थः । उक्तं च । “आहारवग्गणादो तिष्णि सरीराणि होंति उस्थासो । णिस्सासो वि य तेजोवग्गणखंधादु तेजंगं ॥” औदारिकवैक्रियिकाहारकनामानि त्रीणि و शरीर, कर्म, नोकर्म, वचन, मन उच्च्छास निश्वास वगैरह में कारण होता है । शङ्का - कर्म पौगलिक नहीं हैं; क्योंकि वे निराकार होते हैं । जो आकारवाले औदारिक आदि शरीर हैं उन्हींको पौगलिक मानना उचित है ? समाधान - ऐसा कहना उचित नहीं है, कर्म भी पौगलिक ही है; क्योंकि उसका विपाक लाठी, काण्टा वगैरह मूर्तिमान द्रव्यके सम्बन्धसे ही होता है । जैसे धान वगैरह जल, वायु, धूप आदि मूर्तिक पदार्थोंके सम्बन्धसे पकते हैं अतः वे मूर्तिक हैं वैसे ही पैरमें काण्टा लग जानेसे असाता वेदनीय कर्मका विपाक होता है और गुड़ वगैरह मिष्टान्नका भोजन मिलनेपर साता वेदनीय कर्मका विपाक होता है । अतः कर्म भी पौगलिक ही है । वचन दो प्रकारका होता है-भाव वचन और द्रव्यवचन । भाववचन अर्थात् बोलनेकी सामर्थ्य मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांग नामकर्मके लाभके निमित्तसे होती है अतः वह पौगलिक है; क्योंकि यदि उक्त कर्मोंका क्षयोपशम और अंगोपांग नाम कर्मका उदय न हो तो भाववचन नहीं हो सकता । और भाववाक् रूप शक्तिसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेरित पुद्गलही वचनरूप परिणमन करते हैं अर्थात् बोलनेकी शक्तिसे युक्त आत्मा जब बोलनेका प्रयत्न करता है तो उसके तालु आदिके संयोगसे पुद्गलस्कन्ध वचनरूप हो जाते हैं उसीको द्रव्यवाक् कहते हैं । अतः द्रव्यवाक् भी पौद्गलिक ही है क्योंकि वह श्रोत्र इन्द्रियका विषय है । मन भी दो प्रकारका होता है - द्रव्यमन और भावमन । भावमनका लक्षण लब्धि और उपयोग है । ज्ञानावरणके क्षयोपशम विशेषका नाम लब्धि है और उसके निमित्तसे जो आत्माका जानने रूप भाव होता है वह उपयोग है । अतः भावमन लब्धि और उपयोगरूप है । वह पुद्गलका अवलम्बन पाकर ही होता है अतः पौनलिक है । ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्मके उदयसे जो पुद्गल मन रूप होकर गुण दोषका विचार तथा स्मरण आदि व्यापारके अभिमुख हुए आत्माका उपकार करते हैं उन्हे द्रव्यमन कहते हैं । अतः द्रव्य मन पौगलिक है । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण 1 कर्मके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयके निमित्तसे जीव जो अन्दरकी वायु बाहर निकालता है उसे उच्छास अथवा प्राण कहते हैं । और वही जीव जो बाहरकी वायु अन्दर लेजाता है उसे निश्वास अथवा अपान कहते हैं । ये दोनों उच्छास और निश्वास आत्माके उपकारी हैं; क्योंकि उसके 1 I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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