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________________ -२०६] १०. लोकानुप्रेक्षा १३९ नानाविधशक्तियुक्तः त्रयोविंशतिवर्गणाभिरनेकशरीरादिकार्यकरणशक्तियुक्तैः । तेषां पुद्गलानां सूक्ष्मत्वं बादरत्वं च कथमिति चेत् । “पुढवी जल च छाया चउरिदियविसयकम्मपरमाणू । छव्विहमेयं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ।" पृथ्वी १ जलं २ छाया ३ चक्षुर्वर्जितशेषचतुरिन्द्रियविषयः ४ कर्म ५ परमाणुश्च ६ इति पुद्गलद्रव्यं षोढा जिनवरैर्भणितम्। "बादरबादर १बादर १ बादरमुहुमं३ च सुहुमथूलं ४ च । सुहमं च ५ सुहमसुहम ६ धरादियं होदि छब्भेयं ॥" पृथ्वीरूपपुद्गलद्रव्यं बादरबादरम्, छेत्तुं भेत्तुमन्यत्र नेतुं शक्यं तद्वादरबादरमित्यर्थः १। जलं बादरम्, यच्छेत्तुं भेत्तुमशक्यमन्यत्र नेतु शक्यं तद्वादरमित्यर्थः २। छाया बादरसूक्ष्मम् , यच्छेत्तुं मेत्तुम् अन्यत्र नेतुम् अशक्य दिरसूक्ष्मामत्यथः ३ । यश्चक्षुवजितचतुरिन्द्रियविषयो बाह्यार्थस्तत्सूक्ष्मस्थूलम् ४ । कर्म सूक्ष्मम् , यद्रव्य देशावधिउसे बादर बादर कहते हैं। जल बादर है; क्योंकि जो छेदा भेदा तो न जासके किन्तु एक जगहसे दूसरी जगह ले जाया जा सके उसे बादर कहते हैं। छाया बादर सूक्ष्म है; क्यों कि जो न छेदा मेदा जासके और न एक जगहसे दूसरी जगह लेजाया जा सके, उसे बादर सूक्ष्म कहते हैं । चक्षुके सिवा शेष इन्द्रियोंका विषय जो बाह्य द्रव्य है जैसे, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द ये सूक्ष्मबादर हैं । कर्म सूक्ष्म हैं; क्योंकि जो द्रव्य देशावधि और परमावधिका विषय होता है वह सूक्ष्म है । और परमाणु सूक्ष्म सूक्ष्म है; क्यों कि वह सर्वावधि ज्ञानका विषय है ।" और भी कहा है-"जो सब तरहसे पूर्ण होता है उस पुद्गलको स्कन्ध कहते हैं । स्कन्धके आधे भागको देश कहते हैं और उस आधेके भी आधे भागको प्रदेश कहते हैं। तथा जिसका दूसरा भाग न होसके उसे परमाणु कहते हैं । अर्थात् जो आदि और अन्त विभागसे रहित हो, यानी निरंश हो, स्कन्धका उपादान कारणहो यानी जिसके मेलसे स्कन्ध बनता हो और जो इन्द्रिय गोचर न हो उस अखण्ड अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं । आचार्य नेमिचन्द्र वगैरहने पुद्गल द्रव्यकी विभाव व्यंजनपयर्याय अर्थात् विकार इस प्रकार कहे हैं-"शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, मेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ये पुद्गलद्रव्यकी पर्याये हैं ।" इन पर्यायोंका विस्तृत वर्णन करते हैं। शब्दके दो मेद हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्दके मी दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। संस्कृत भाषा, प्राकृतभाषा, अपभ्रंश भाषा, पैशाचिक भाषा आदिके भेदसे अक्षरात्मक शब्द अनेक प्रकारका है, जो आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंके व्यवहारमें सहायक होता है। दो इन्द्रिय आदि तिर्यश्च जीवोंमें तथा सर्वज्ञकी दिव्यध्वनिमें अनक्षरात्मक भाषाका व्यवहार होता है । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैनसिकके मेदसे दो प्रकारका है। जो शब्द पुरुषके प्रयत्न करनेपर उत्पन्न होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं। उसके चार भेद हैं-तत, वितत, घन और सुषिर । वीणा वगैरहके शब्दको तत कहते हैं। ढोल वगैरहके शब्दको वितत कहते हैं। कांसेके बाजेके शब्दको घन कहते हैं । और बांसुरी वगैरहके शब्दको सुषिर कहते हैं। जो शब्द स्वभावसे ही होता है उसे वैनसिक कहते हैं । स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे जो बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि बन जाते हैं, उनके शब्दको वैनसिक कहते हैं जो अनेक प्रकारका होता है । इस प्रकार शब्द पुद्गलका ही विकार है । अब बन्धको कहते हैं । मिट्टीके पिण्ड आदि रूपसे जो अनेक प्रकारका बन्ध होता है वह केवल पुद्गल पुद्गलका बन्ध है । कर्म और नोकर्मरूपसे जो जीव और पुद्गलका संयोगरूप बन्ध होता है वह द्रव्यबन्ध है और रागद्वेष आदि रूपसे भावबन्ध होता है । बेर वगैरहकी अपेक्षा बेल वगैरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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