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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा १३१ रूपसिद्धान्ते कुशला दक्षा निपुणाः, जिनाज्ञाप्रतिपालका वा, जीवदेहयोरात्मशरीरयोर्मेदं जानन्ति, जीवाच्छरीर भिनं पृथग्रूपमिति जानन्ति विदन्ति । पुनः कीदृक्षास्ते । निर्जितदुष्टाष्टमदाः । मदाः के। 'ज्ञानं पूजा कुलं जातिर्बलमृद्धिस्तपो वपुः' इत्यष्टौ मदा गर्वा अभिमानरूपाः, अष्टौ च मदाश्च अष्टमदाः, दुष्टाः सम्यत्वमलहेतुत्वात् , ते च ते अष्टमदाश्च, निर्जिता दुष्टाष्टमदा येते तथोक्ताः । ते त्रिविधाः त्रिप्रकारा अन्तरात्मानो भवन्ति जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् ॥१९४॥ अन्तरात्मनः तांथ भेदान् दर्शयति पंच-महव्वय-जुसा धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं । णिज्जिय-सयल-पमाया उक्किट्ठा अंतरा हॉति ॥ १९५ ॥ [छाया-पञ्चमहाव्रतयुक्ताः धर्मे शुक्ले अपि संस्थिताः नित्यम् । निर्जितसकलप्रमादाः उत्कृष्टाः अन्तराः भवन्ति ॥] होति भवन्ति । के । उत्कृष्टा अन्तरात्मानः । कीदृक्षास्ते पञ्चमहाव्रतयुक्ताः, हिंसानृतस्तेयाब्रह्मचर्यपरिप्रहनिवृत्तिलक्षणैः महावतैः सहिताः । पुनः कथंभूतास्ते । नित्यं निरन्तरं धर्मे शुक्लेऽपि संस्थिता, धर्मध्याने भाशापायविपाकसंस्थानकरते हैं। जो तीर्थहरके द्वारा प्रतिपादित और गणधर देवके द्वारा गूंथे गये द्वादशाङ्ग रूप जिनवाणीमें दक्ष है, उसको जानते हैं अथवा जिन भगवानकी आज्ञा मानकर उसका आदर और आचरण करते हैं, और जीवसे शरीरको भिन्न जानते हैं । तथा जिन्होंने सम्यक्त्वमें दोष पैदा करनेवाले आठ दुष्ट मदोंको जीत लिया है । वे आठ मद इस प्रकार हैं-ज्ञानका मद, आदर सत्कारका मद, कुलका मद, जातिका मद, ताकतका मद, ऐश्वर्यका मद, तपका मद और शरीरका मद । इन मदोंको जीतने वाले जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं। उनके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन भेद हैं ॥१९४ ॥ अब उत्कृष्ट अन्तरात्माका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव पांच महाव्रतोंसे युक्त होते हैं, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानमें सदा स्थित होते हैं, तथा जो समस्त प्रमादोंको जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ॥ भावार्थ-जो हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापोंकी निवृत्तिरूप पांच महावतोंसे सहित होते हैं, आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रूप दस प्रकारके धर्मध्यान और पृथक्त्व वितर्क वीचार तथा एकत्व वितर्क वीचाररूप दो प्रकारके शुक्लध्यानमें सदा लीन रहते हैं। तथा जिन्होंने प्रमादके १५ मेदोंको अथवा ८० भेदोंको या सैंतीस हजार पांच सौ मेदोंको जीत लिया है, ऐसे अप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानतकके मुनि उस्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं । विशेष अर्थ इस प्रकार है । प्रमादवश अपने या दूसरोंके प्राणोंका घात करना हिंसा है । जिससे दूसरोंको कष्ट पहुंचे, ऐसे वचनका बोलना झूठ है । बिना दिये पराये तृणमात्रको भी लेना अथवा उठाकर दूसरोंको देना चोरी है । कामके वशीभूत होकर कामसेवन आदि करना मैथुन है । शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि वस्तुओंमें ममत्व रखना परिग्रह है। ये पांच पाप हैं । इसका एकदेशसे त्याग करना अणुवत है और पूरी तरहसे त्याग करना महावत है । ध्यानका वर्णन आगे किया जायेगा। अच्छे कामोंमें आलस्य करनेका नाम प्रमाद है । प्रमाद १५ हैं४ विकथा अर्थात् खोटी कथा-श्रीकथा-स्त्रियोंकी चर्चा वार्ता करते रहना, भोजनकथा-खानेपीनेकी चर्चावार्ता करते रहना, राष्ट्रकथा-देशकी चर्चावार्ता करते रहना और राजकथा-राजाकी चर्चावार्ता १०सग संठिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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