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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १७६कपावसमुहातः ।२। मूलशरीरमत्यक्त्वा किमपि विकुर्वयितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति विकुर्वणासमुद्धातः । सतु विष्णुकुमारादिवत् महर्षीणां देवानां च भवति । ३ । मरणान्तसमये मूलशरीरमत्यक्त्वा यत्र कुत्रचित् बद्धमायुस्तप्रदेशं स्फुटितम् आत्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति मारणान्तिकसमुद्धातः। स च संसारिजीवानां विग्रहगतौ स्यात् । ४। खस्य मनोऽनिष्टजनक किंचित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरपुजप्रभः दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः १२ सूच्यालसंख्येयभागो मूलविस्तारः २ नवयोजनाप्रविस्तारः ९ काहलाकार पुरुषः वामस्कन्धामिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदयनिहितं विरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह च भस्म व्रजति, द्वौपायनवत् । असावशुभस्तेजःसमुद्धातः । लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पनकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः दीर्घयो. १२ । सू. २ वि. यो. १।९ पुरुषो दक्षिणस्कन्धामिर्गत्य दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फेटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति । असौ शुभरूपस्तेजःसमुद्धातः । ५। समुत्पनपदपदार्थभ्रान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेः मूलशरीरमत्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिः एकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्याभिर्गत्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्तमध्ये केवल ज्ञानिनं पश्यतस्तद्दर्शनात् च खाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिश्चयं समुत्पादव्यापक कैसे है ? समाधान-क्योंकि उसमें अवगाहन शक्ति है । शङ्का-अवगाहन शक्ति क्यों है ! समाधान-शरीर नाम कर्मका उदय होनेसे आत्मामें संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। जैसे दीपकको यदि घड़े घड़िया या सकोरे वगैरह छोटे बर्तनोंसे ढक दिया जाये तो वह अपने संकोच खभावके कारण उसी वर्तनको प्रकाशित करता है । और यदि उसी दीपकको किसी बड़े बरतनसे ढाक दिया जाये या किसी घर वगैरहमें रखदिया जाये तो वह फैलकर उसीको प्रकाशित करता है। इसी तरह आत्मा निगोदिया शरीर पानेपर सकुचकर उतना ही होजाता है और महामत्स्य वगैरहका बड़ा शरीर पानेपर फैलकर उतना ही बड़ा होजाता है । तथा वेदना समुद्रात, कषाय समुद्रात, विक्रिया समुद्रात, मारणान्तिक समुद्रात, तैजस समुद्धात, आहारक समुद्धात और केवली समुद्रात इन सात समुद्धातोंको छोड़कर जीव अपने शरीरके बराबर है । मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं । तीव्र कष्टका अनुभव होनेसे मूलशरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलने को वेदना समुद्धात कहते हैं । तीव्र कषायके उदयसे मूल शरीरको न छोड़कर परस्परमें एक दूसरेका घात करनेके लिये आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको कषाय समुद्रात कहते हैं । संग्राममें योद्धा लोग क्रोधमें आकर लाल लाल आँखे करके अपने शत्रुको ताकते हैं यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, यही कषाय समुद्धातका रूप है । कोई भी विक्रिया करते समय मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको विक्रिया समुद्रात कहते हैं । तत्त्वोंमें शंका होनेपर उसके निश्चयके लिये या जिनालयोंकी वन्दनाके लिये छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकसे जो पुतला निकलता है और केवली या श्रुतकेवलीके निकट जाकर अथवा जिनालयोंकी वन्दना करके लौटकर पुनः मुनिके शरीरमें प्रविष्ट होजाता है वह आहारसमुद्रात है । जब केवलीकी आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहती है और शेष तीन अघातिया कर्मोंकी स्थिति उससे अधिक होती है तो बिना भोगे तीनों कर्मोंकी स्थिति. आयुकर्मके बराबर करनेके लिये दण्ड, कपाट, मथानी, और लोकपूरण रूपमें केवली भगवान्, अपनी आत्माके प्रदेशोंको सब लोकमें फैला देते हैं उसे केवली समुद्रात कहते हैं। इन सात समुद्रातोंको छोड़कर जीव अपने शरीरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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