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________________ १०४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १६६[छाया-देवानां नारकाणां सागरसंख्या भवन्ति त्रयस्त्रिंशत् । उत्कृष्टं च जघन्य वर्षाणां दश सहस्राणि ] देवानां नारकाणां चोत्कृष्टमायुस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणं भवति । च पुनः, तेषां देवानां नारकाणां च जघन्यायुर्दशवर्षसहस्राणि १०...। तथा हि॥ "बेसत्तदसयचोइससोलसअट्ठारवीसबावीसा । एयाधिया य एत्तो सक्कादिसु सागरुवमाणं ॥" २।७।१०।१४ । १६ ।.१८ । २० । २२। २३ । २४ । २५। २६ । २७ । २८ । २९ । ३० ।३१। ३२ । ३३ । सौधर्मशानयोर्देवानां द्वे सागरोपमे परमायुषः स्थितिः २। अघातायुषोऽपेक्षयैतदुक्तम् । घातायुषोऽपेक्षया पुन सागरोपमे सागरोपमार्धनाधिके भवतः । एवम् अर्धसागरोपममधिकं घातायुषां देवानां सहस्रारकल्पपर्यन्तम् , ततः समुत्पत्तेरभावात् । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः देवानां परमायुः सप्तसागरोपमाणि ७ । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोर्देवानां परमायः दशसागरोपमाणि १० । किंतु लौकान्तिकानां सारखतादीनाम् अष्टौ सागराः ८। लान्तवकापिष्टयोः देवानां चतुर्दश सागराः १४ । शुक्रमहाशुक्रयोः षोडश सागराः १६ । सतारसहस्रारयोरष्टादशसागराः १८ । आनतप्राणतयोविंशतिः सागराः २० । आरणाच्युतयोद्वाविंशतिः सागराः २२ । सुदर्शने त्रयोविंशतिरब्धीनां परमा स्थितिः २३ । अमोघे चतुर्विंशतिः सागराः २४ । सुप्रबुद्धे पञ्चविंशतिः सागराः २५ । यशोधरे सागराः २६ । सुभद्रे सागराः २७ । सुविशाले सागराः २८ । सुमनसि सागराः २९ । सौमनस्ये सागराः ३० । प्रीतिकरे सागराः ३१। आदित्ये सागराः ३२ । सर्वार्थसिद्धौ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ३३ ॥ जघन्यं तु 'अपरा पल्योपममधिकम्' सौधर्मशानयोः प्रथमपटले जघन्यायुःस्थितिः एकपल्योपमं किंचिदधिकं भवति । सौधर्मशानयोरुत्कृष्टायुषः स्थितिः २। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवानां समयाधिका जघन्या सा स्थितिः । एवमुपर्युपरि ब्रह्मब्रह्मोत्तरादिषु ज्ञेया । तथा सौधर्मेशानयोः प्रथमपटले जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । कहा भी है-' वैमानिक देवोंकी आयु क्रमश दो, सात, दस, चौदह सोलह, अठारह, बीस और बाईस सागर है और आगे एक एक सागर अधिक है ।' अर्थात् सौधर्म और ऐशान खर्गमें देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो सागर है । यह स्थिति अघातायुष्ककी अपेक्षासे कही है। घातायुष्ककी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति आधा सागर अधिक दो सागर होती है। आशय वह है कि जिस जीवने पूर्वभवमें पहले अधिक आयुका बन्ध किया था पीछे परिणामोंके वशसे उस आयु को घटाकर कम कर दिया वह जीव घातायुष्क कहा जाता है । ऐसा घातायुष्क जीव अगर सम्यग्दृष्टी होता है तो उसके उक्त उत्कृष्ट आयुसे आधा सागर अधिक आयु सहस्रार स्वर्गपर्यन्त होती है; क्योंकि घातायुष्क देव सहस्रार खर्गपर्यन्त ही जन्म लेते हैं, उससे आगे उनकी उत्पत्ति नहीं होती । अस्तु, सनत्कुमार माहेन्द्र वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु सात सागर है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर खर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु दस सागर है । किन्तु ब्रह्म वर्गके अन्तमें रहनेवाले सारखत आदि लौकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु आठ सागर है । लान्तव कापिष्ठ वर्गके देवोंकी आयु चौदह सागर है । शुक्र महाशुक्र वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु सोलह सागर है । सतार और सहस्रार स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु अट्ठारह सागर है । आनत और प्राणत खर्गके देवोंकी उत्कष्ट आयु वीस सागर है । आरण और अच्युत खर्गके देवोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस सागर है । प्रथम, सुदर्शन अवेयकमें तेईस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है । दूसरे अमोघ अवेयकमें चौवीस सागर, तीसरे सुप्रबुद्धमें पच्चीस सागर, चौथे यशोधरमें २६ सागर, पांचवें सुभद्रमें सत्ताईस सागर, छठे सुविशालमें अट्ठाईस सागर, सातवें सुमनसमें उनतीस सागर, आठवें सौमनस्यमें तीस सागर और नौवें प्रीतिकर अवेयकमें इकतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। आदित्य पटलमें स्थित नौ अनुदिशोंमें बत्तीस सागर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि पंच अनुत्तरोंमें तेतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है । सौधर्म और ऐशान वर्गके प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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