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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १४३ स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुः श्रोत्रेन्द्रिय कायबलायुःप्राणाः सप्त ७ भवन्ति, न तु भाषोच्छ्वासमनः प्राणाः । अत्र पर्याप्तिप्राणयोः को भेदः । आहारशरीरेन्द्रियान प्राणभाषामनोर्थग्रहणशक्तिनिष्पत्तिरूपाः पर्याप्तयः, विषयग्रहणव्यापार व्यक्तिरूपाः प्राणाः, इति मेदो ज्ञातव्यः ॥ १४१ ॥ ननु त्रसनाड्यां त्रसाः सर्वत्रेति प्रश्ने, अथ विकलत्रयाणां स्थाननियमं निर्दिशतिवि-ति चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु । चरिमे दीवे अद्धे चरम ' - समुद्दे वि सव्वेसु ॥ १४२ ॥ ८० [ छाया - द्वित्रिचतुरक्षाः जीवाः भवन्ति नियमेन कर्मभूमिषु । चरमे द्वीपे अर्धे चरमसमुद्रे अपि सर्वेषु ॥ ] द्वित्रिचतुरिन्द्रिया जीवाः प्राणिनः नियमतः सर्वासु कर्मभूमिषु पञ्चभरतपञ्चैरावतपञ्चविदेहेषु पञ्चदशकर्मधरासु विकलत्रया संज्ञिजीवा भवन्ति, न तु भोगभूम्यादिषु । अपि पुनः, चरमे द्वीपे अर्धे स्वयंप्रभद्वीपे चरमे तस्यार्थे स्वयंप्रभपर्वतोऽस्ति मानुषोत्तरवत् । तस्य स्वयंप्रभस्य परतः अर्धद्वीपे चरमसमुद्रे स्वयंभूरमणसमुद्रे सर्वस्मिन् द्वित्रिचतुरिन्द्रिया जीवाः । अपिशब्दात् असंज्ञिनो भवन्ति । एते नान्यत्र स्थानेषु ॥ १४२ ॥ अथ मानुषक्षेत्रबहिर्भागेषु तिरश्चामायुः कायादिनियमं निगदति माणुस - खित्तस्स बहिं चंरिमे दीवस्स अद्धयं जाँव । संव्वत्थे वितिरिच्छा हिमवद - तिरिएहिँ सारिच्छा ॥ १४३ ॥ 1 [ छाया - मानुषक्षेत्रस्य बहिः चरमे द्वीपस्य अर्धकं यावत् । सर्वत्र अपि तिर्यञ्च: हैमवततिर्यग्भिः सदृशाः ॥ ] मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्भागे चरमे द्वीपस्य स्वयंप्रभद्वीपस्य यावत्, अद्धयं अर्धकं, पुष्कर द्वीपार्धस्थितमानुषोत्तरपर्वतात् अग्रे स्वयंप्रभद्वीपमध्यस्थितस्वयंप्रभाचलात् अर्वाक्, सव्वत्थे वि सर्वत्रापि, अपर पुष्करार्धद्वीपादिस्वयंप्रभद्वी पार्धपर्यन्तेषु इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनरूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्त कहते हैं । और पर्याप्ति पूर्ण हो जानेपर इन्द्रिय वगैरहका विषयोंको ग्रहण करना आदिरूप अपने कार्य में प्रवृत्ति करना प्राण है । इस तरह दोनोंमें कारण और कार्यका भेद है ॥ १४१ ॥ किसीने प्रश्न किया कि क्या त्रस नाडी में सर्वत्र त्रस रहते हैं ? इसके समाधानके लिये ग्रन्थकार विकलत्रय जीवोंके निवासस्थानको बतलाते हैं । अर्थ- दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं । तथा अन्तके आधे द्वीपमें और अन्तके सारे समुद्र में होते हैं ॥ भावार्थ- पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह, इन पन्द्रह कर्मभूमियोंमें विकलत्रय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव होते हैं, भोगभूमि वगैरह में नहीं होते । तथा जैसे पुष्कर द्वीपके मध्य में मानुषोत्तर पर्वत पड़ा हुआ है वैसे ही अन्तके स्वयंप्रभद्वीप के बीच में स्वयंप्रभ पर्वत पड़ा हुआ है । उसके कारण द्वीपके दो भाग हो गये हैं । सो स्वयंप्रभ पर्वतके उस ओरके आधे द्वीपमें और पूरे स्वयंभूरमण समुद्र में दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव तथा 'अपि' शब्द से असंज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव होते हैं । इनके सिवा अन्य स्थानोंमें ये जीव नहीं होते ॥ १४२ ॥ अब मनुष्यलोकसे बाहर के भागों में रहनेवाले तिर्यञ्चोंकी आयु और शरीर बगैरहका नियम कहते हैं । अर्थ - मनुष्यलोकसे बाहर अन्तके स्वयंप्रभ द्वीपके आधे भाग तक, सब द्वीपोंमें जो तिर्यञ्च रहते हैं वे हैमवत क्षेत्रके तिर्यञ्चों के समान होते हैं | भावार्थ- पुष्करद्वीप के आधे भागमें स्थित मानुषोत्तर गर्वतसे आगे और स्वयंप्रभ द्वीपके मध्य में स्थित स्वयंप्रभ पर्वत से पहले अर्थात् पश्चिम पुष्करार्ध द्वीपसे लेकर स्वयंप्रभद्वीप के आधे भाग तक असंख्यात द्वीपोंमें जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय थलचर और नभचर तिर्यञ्च होते हैं वे हैमवत भोगभूमिके तिर्यश्चों के 1 १ ल चरिम । २ ग चरमे । ३ ब जाम । ४ ल स ग सव्वत्थि वि । ५ ब हिमवदितिरियेहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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