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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १०३सोसि कम्माणं सति-विवाओ' हवेइ अणुभाओ। सदणंतरंतु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १०३ ॥ [छाया-सर्वेषां कर्मणां शक्तिविपाकः भवति अनुभागः । तदनन्तरं तु शटनं कर्मणां निर्जरा जानीहि ॥] कर्मणां ज्ञानावरणादीनां निर्जरा निजैरणम् एकदेशेन शैडनं गलनं जानीहि । शक्तिविपाकः शक्तिः सामध्ये तस्य विपाकः उदयः अनुभागः फलदानपरिणतिः । केषाम् । सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणां वा मूल प्रकृतीनाम् उत्तरप्रकृतीनाम् उत्तरोत्तरप्रकृतीनां च । तु पुनः । तदनन्तरं कर्मविपाकादनन्तरं शटनं निषेकरूपेण गलनम् ॥१.३॥ अथ तस्याः दैविध्यमभिधसे सा पुर्ण दुविहा णेया सकाल-पत्ता तवेण कयमाणा। चादुगदीणं पढमा वय-जुत्ताणं हवे बिदिया ॥ १०४ ॥ [छाया-सा पुनर् द्विविधा ज्ञेया खकालप्राप्ता तपसा क्रियमाणा । चातुर्गतिकानां प्रथमा व्रतयुक्तानां भवेत् द्वितीया ॥] सा पुनः निर्जरा द्विविधा द्विप्रकारा झेया ज्ञातम्या, सविपाकाविपाकमेदात् । तत्र सविपाका खकालप्राप्ता खोदयकालेन निर्जरणं प्राप्ता, समय प्रबद्धेन बद्धं कर्म स्वाबाधाकालं स्थित्वा स्वोदयकालेन निषेकरूपेण गलति, पक्काम्रफलवत् । द्वितीया तु भविपाकनिजरा तपसा क्रियमाणा अनशनादिद्वादशप्रकारेण विधीयमाना, यथा अपक्कानां कदली. फलानां हठात्पाचन विधीयते तथा अनुदयप्राप्तानां कर्मणां तपश्चरणादिना त्रिद्रव्यनिक्षेपेण कर्मनिषेकानां गालनम् । तत्र प्रथमा सविपाकनिर्जरा चातुर्गतिकानां सर्वेषां प्राणिनां साधारणा। द्वितीया च भविपाकनिर्जरा व्रतयुक्तानां सम्यक्त्वदेशवतमहाव्रतादिसहिताना भवेत् ॥ १०४ ॥ अथ निजराबाद्ध दशयातकी प्राप्तिके लोभसे कोई तपस्या करता है तो वह निरर्थक है | अतः निदानरहित तप ही निर्जराका कारण है। तथा यदि कोई संसार, शरीर और भोगोंमें आसक्त होकर तप करता है तो वह तपभी बन्धका ही कारण है । अतः वैराग्यभावनासे किया गया तप ही निर्जराका कारण होता है ॥ १०२॥ अब निर्जराका लक्षण कहते हैं । अर्थ-सब कौकी शक्तिके उदय होनेको अनुभाग कहते हैं। उसके पश्चात् कर्मोंके खिरनेको निर्जरा कहते हैं ॥ भावार्थ-उदयपूर्वक ही कर्मोंकी निर्जरा होती है । पहले सत्तामें वर्तमान कर्म उदयमें आते हैं । उदयमें आनेपर वे अपना फल देकर झड़ जाते हैं । इसीका नाम निर्जरा है ॥ १०३ ॥ अब उसके दो भेदोंको कहते हैं । अर्थ-वह निर्जरा दो प्रकारकी है-एक खकालप्राप्त और दूसरी तपके द्वारा की जानेवाली । पहली निर्जरा चारों गतिके जीवोंके होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवोंके होती है ॥ भावार्थ-निर्जरा के दो भेद हैंसविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा । सविपाकनिर्जराको खकालप्राप्त कहते हैं। क्योंकि बँधे हुए कर्म अपने आबाधाकालतक सत्तामें रहकर, उदयकाल आने पर जब अपना फल देकर झड़ते हैं, तो अपने समयपर ही झड़नेके कारण उसे स्वकालप्राप्त निर्जरा कहते हैं। जैसे वृक्षपर पका हुआ आमका फल अपने समयपर पक कर टपक पड़ता है। दूसरी अविपाकनिर्जरा है, जो बारह प्रकारके तपके द्वारा की जाती है | जैसे कच्चे आमोंको समयसे पहले पका लिया जाता है, वैसे ही जो कर्म उदयमें नहीं आए हैं उन्हें तपस्या आदिके द्वारा बलपूर्वक उदयमें लाकर खिरा दिया जाता है। पहले प्रकारकी निर्जरा सभी जीवोंके होती है, क्योंकि बाँधे गये कर्म समय आनेपर सभीको फल देते हैं और पीछे अलग हो जाते हैं । किन्तु दूसरे प्रकारकी निर्जरा व्रतधारियोंके ही होती है, क्योंकि वे तपस्या वगैरहके द्वारा कर्मोको बलपूर्वक उदयमें लासकते हैं ॥ १०४ ।। १ ब सत्त। २ ल विवागो । ३ ग सडनं। ४ व पुणु। ५ चाऊग दीणं, स चाउ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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